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नयी आदतें : नयी आस्थाएं ३०७
परिष्कार में लग गई वह जो कुछ भी करता है, वह सारा धर्म ही है। जिसकी ऊर्जा चेतना के परिष्कार में नहीं लगी, उसका करना पाप है, अधर्म है । साधु का मतलब वेश पहनने मात्र से नहीं है । महावीर का यही आशय है । उन्होंने वेश को लक्ष्य कर कुछ नहीं कहा। उन्होंने चेतना को लक्ष्य कर ही सारा प्रतिपादन किया है। जिसकी यात्रा चेतना के जगत् में शुरू हो गई, जिसने चेतना के जगत् में एक पैर भी बढ़ा दिया, वह व्यक्ति चेतना के जगत् में रहकर जो कुछ करता है वह सारा का सारा धर्म है । जिसने चेतना की अन्तर्यात्रा शुरू नहीं की, वह व्यक्ति जो कुछ करता है वह अधर्म है, धर्म नहीं है । मुख्य बात है --चेतना के परिष्कार की । चेतना का परिष्कार चाहे साधु करे या गृहस्थ करे। दोनों कर सकते हैं।
गृहस्थ के वेश में साधु : साधु के वेश में गृहस्थ
साधु कौन ? गृहस्थ कौन? यह खोज का विषय है कि किस वेश में कौन बैठा है? गृहस्थ के कपड़ों में बैठा हुआ साधु हो सकता है और साधु के कपड़ों बैठा हुआ गृहस्थ हो सकता है। मैं चेतन जगत् की चर्चा कर रहा हूं। जिसने चेतन जगत् की यात्रा शुरू कर दी, चेतना के जगत् में जिसके जीवन का क्रिया-कलाप प्रारंभ हो गया, वह साधु है। गृहस्थ का सारा क्रिया-कलाप बाह्य जगत् में होता । वह चेतना का स्पर्श नहीं कर पाता । यह वेश से गृहस्थ की बात नहीं है ।
ध्यान का उद्देश्य है - आस्था का निर्माण । जो चेतना के साथ जुड़ी हुई है उस आस्था के द्वारा जो कुछ होगा वह नयी आदतें लाने वाला होगा । हम श्वास का प्रयोग इसीलिए करते हैं कि चेतना के साथ जुड़े हुए विषों और मलों को दूर करें, चेतना का परिष्कार करें। ऐसा होने पर नयी आदतों का निर्माण होता है । यदि श्वास लेने की सही विधि हस्तगत हो जाती है और व्यक्ति सही ढंग से श्वास लेने लग जाता है, तो उसकी मूर्च्छा सघन नहीं होती । उसकी उत्तेजनाएं और वासनाएं तीव्र नहीं होतीं । जो व्यक्ति दीर्घ श्वास का अभ्यास करता है, वह इन सारी बुराइयों को नियंत्रित कर देता है और धीरे-धीरे इनसे छुटकारा पा जाता है। एक श्वास लेने की आदत को डालने का मतलब है बहुत सारी अच्छी आदतों का निर्माण करना । यदि श्वास लेने की आदत सही नहीं है तो वह व्यक्ति अन्तर्यात्रा नहीं कर सकता ।
ध्यान का प्रयोजन है-चेतना के साथ जुड़ी हुई आस्था का निर्माण। उस आस्था के आधार पर संचालित होने वाली नयी आस्थाओं का निर्माण ।
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