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चैतन्य का अनुभव २८५
क्षुब्ध नहीं कर पाती। वह घटना को जान लेता है, भोगता नहीं। वह केवल ज्ञाता रहता है, भोक्ता नहीं। अमूढ़ चेतना
दूसरा सुफल यह होता है कि चेतना असम्मोह स्थिति में चली जाती है। उसमें फिर मूढ़ता पैदा नहीं होती। इस दुनिया में मूढ़ता पैदा करने वाले अनेक तत्त्व हैं। वह एक शब्द सुनता है, एक रूप देखता है और सम्मोहित हो जाता है। उसकी चेतना संमूढ़ बन जाती है। एक विचार सामने आता है और संमूढ़ बन जाता है। पग-पग पर संमूढ़ता के कारण बिखरे पड़े हैं। वह इनमें फंस जाता है। सारे सम्मोहन विकल्प चेतना में जागते रहते हैं। विकल्प उभरता है, साथ-साथ मूढ़ता उभरती है, निर्विकल्प चेतना के उपलब्ध होने पर चित्त मूढ़ नहीं बनता, सम्मोहन समाप्त हो जाते हैं।
वह अभी-अभी संन्यासी बना था। एक तालाब के पास सो रहा था। कुछ स्त्रियां पानी लेने तालाब पर आयीं। उन्होंने संन्यासी को देखा। एक स्त्री बोली-देखो, संन्यासी हो गया तो क्या? अभी सिरहाने का मोह नहीं छूटा। कपड़े का तकिया नहीं मिला तो ईंट का तकिया बना दिया।
संन्यासी के कानों में ये शब्द पड़े। वह उन शब्दों से संमूढ़ हो गया। उसने तत्काल सिर के नीचे दी हुई ईंट निकाल दी। स्त्रियों ने यह देखा। एक स्त्री बोली-'अच्छे संन्यासी बने! थोड़ी-सी बात कही और डर गए। उन शब्दों के प्रभाव में आ गए। महाराज! आपने संन्यास ले लिया। घर-बार छोड़ दिया, पर लगता है अभी तक वासना नहीं छूटी। हम तो गृहस्थ हैं। यों ही कहते रहेंगे। हमारे कहे-कहे आप करते रहेंगे तो संन्यास का पालन ही नहीं कर पाएंगे। आप कभी ईंट निकालेंगे और कभी रखेंगे।
कितनी मार्मिक है कथा! कोई व्यक्ति पग-पग पर मूढ़ बनता है तो दुनिया उसको टिकने नहीं देती। यह दुनिया अच्छे कार्य की भी आलोचना करती है और बुरे कार्य की भी आलोचना करती है। यदि कोई व्यक्ति शब्दों और विचारों के आधार पर संमूढ़ होता है तो उसे जीने का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता। निर्विकल्प चेतना में संमूढ़ होने की स्थिति समाप्त हो जाती है। विवेक-चेतना
तीसरा सुफल यह होता है कि विवेक-चेतना जाग जाती है। विवेक-चेतना के जागने पर साधक में पार्थक्य-शक्ति विकसित हो जाती है। वह जान जाता है कि यह छाछ है और यह मक्खन। यह खली है और यह तेल। यह शरीर है और यह आत्मा। यह अचेतन है और यह चेतन। यह अशाश्वत है और यह शाश्वत। आत्मा और पुद्गल का स्पष्ट भेद उसे साक्षात् हो जाता है। यह विवेक-चेतना बहुत बड़ी उपलब्धि है।
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