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२८. चित्त-शुद्धि और लेश्या-ध्यान
इस वैज्ञानिक युग ने मनुष्य जाति का बहुत उपकार किया है। आज धर्म के प्रति जितना सम्यक् दृष्टिकोण है वह पचास-सौ वर्ष पूर्व नहीं हो सकता था। आज सूक्ष्म सत्य के प्रति जितनी गहरी जिज्ञासा है, उतनी पहले नहीं थी। कुछ समय पूर्व तक जब कभी सूक्ष्म सत्य की बात प्रस्तुत होती थी तो मनुष्य उसे पौराणिक या मनगढंत मानकर टाल देता था। वह उसे अंधविश्वास कहता था। एक ऐसा शब्द है अंधविश्वास कि उसकी ओट में सब कुछ छिपाया जा सकता है। किन्तु विज्ञान ने जैसे-जैसे सूक्ष्म सत्यों की प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की, वैसे-वैसे अंधविश्वास कहने का साहस टूटता गया। अब यदि कोई व्यक्ति किसी बात को अंधविश्वास कहकर टालता है तो वह साहस ही करता है। आज विज्ञान जिन सूक्ष्म सत्यों का स्पर्श कर चुका है, दो शताब्दी पूर्व उसकी कल्पना करना भी असंभव था। यह कहा जा सकता है कि विज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान की सीमा के आस-पास पहुंच रहा है। प्राचीनकाल में साधना द्वारा अतीन्द्रिय ज्ञान का विकास और सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार किया जाता था। आज के आदमी ने अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना भी खो दी और अतीन्द्रिय ज्ञान के विकास करने का अभ्यास भी खो दिया। पद्धति भी विस्मृत हो गयी। अब सिवाय विज्ञान के कोई साधन नहीं है। वैज्ञानिकों ने कोई साधना नहीं की, अध्यात्म का गहरा अभ्यास नहीं किया, अतीन्द्रिय चेतना को जगाने का प्रयत्न नहीं किया किन्तु इतने सूक्ष्म उपकरणों का निर्माण किया कि जिनके माध्यम से अतीन्द्रिय सत्य खोजे जा सकते हैं, देखे जा सकते हैं। जो इन्द्रियों से नहीं देखे जा सकते, वे सत्य इन सूक्ष्म उपकरणों से ज्ञात हो जाते हैं। इसका फलित यह हुआ कि आज का विज्ञान अतीन्द्रिय तथ्यों को जानने-देखने और प्रतिपादन करने में सक्षम
है।
सूक्ष्म शरीर
सूक्ष्म शरीर ज्ञात नहीं है। इस स्थूल शरीर से परे कोई शरीर है, यह न आज का चिकित्सक जानता है और न दूसरे व्यक्ति जानते हैं। आज के चिकित्सक ने शरीर के एक-एक अवयव को जान लिया है। वह शरीर के सूक्ष्मतम अवयवों को भी जानता है। उनको उसने देखा है, जाना है, उनकी प्रक्रिया से भी वह अवगत है। एक-एक स्नायु और ग्रन्थि के विषय में उसे पूरी जानकारी है। परन्तु यह सारा इस स्थूल शरीर की परिधि के संदर्भ में है। इससे आगे
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