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२५२ अप्पाणं सरणं गच्छामि
का और अभिव्यक्ति देने का काम स्थूल-शरीर का। कायोत्सर्ग की फलश्रुति ।
कायोत्सर्ग से इस स्थूल-शरीर के प्रति हमारी पकड़ कम हो जाती है और हम दुःख के उपादान तक पहुंच जाते हैं। यह शरीर है-दुःख को प्रकट करने का हेतु, किन्तु प्रकट करने का उपादान नहीं है। उपादान, मूल कारण है-कर्म-शरीर। हमारी अपाय-विचय की खोज पूरी होती है। हमें दुःख के उपादान का दर्शन होता है। जब दुःख के उपादान का दर्शन होता है तब सारा व्यक्तित्व भिन्न प्रकार का होता है। फिर, जिसे सहयोगी मानता रहा, उसे असहयोगी मानने लग जाता है आदमी। असहयोगी मान रहा था, उसे सहयोगी मानने लग जाता है। एक सत्य स्थिर होता है चेतना में कि कर्म-शरीर को क्षीण करना है, इस स्थूल-शरीर का सहयोग लेना है। साधक भी जब तक इस सचाई तक नहीं पहुंचता तब वह मानने लगता है कि सारे दुःखों का मूल है यह शरीर। इस शरीर का असहयोग किया जाए। इस शरीर को सताया जाए। सताने की धारणा बनती है। परन्तु अध्यात्म की गहराई में जाने वाले किसी भी व्यक्ति ने यह नहीं कहा कि इस शरीर को सताना है। न जाने क्यों हमारी धारणा बन गयी। काय-क्लेश क्या है?
जैन साधना-पद्धति में एक शब्द आता है-काय-क्लेश। मध्यकाल में उसकी व्याख्याएं भी विचित्र बन गईं। काय-क्लेश यानी शरीर को सताओ, शरीर को कष्ट दो। शब्द का अनर्थ हुआ। शब्द का सही अर्थ नहीं हुआ। काय-क्लेश का अर्थ शरीर को सताना नहीं है। यह अर्थ कैसे होगा? हम आनन्द के लिए, मोक्ष के लिए साधना करते हैं। हम मानते हैं कि मोक्ष का स्वरूप है अनन्त-चेतना, अनन्त-आनन्द और अनन्त-शक्ति। आनन्द की साधना के लिए जाते हैं और सबसे पहलु शुरू करते हैं शरीर को सताना। साधना करनी है आनन्द की। जाना है आनन्द की दिशा में और सताने के साथ यात्रा शुरू करनी है। दुःख के साथ यात्रा शुरू करनी है तो हम लक्ष्य की तरफ नहीं जा सकेंगे। हमारी गति लक्ष्य की दिशा में नहीं होगी। कहीं भटक जाएगा आदमी। काया को सताना-यह अर्थ नहीं है काय-क्लेश का, इसका अर्थ है-शरीर की स्थिरता, शरीर को साधना। कार्य किसी का : श्रेय किसी को
हमारा विरोध है उस कर्म-शरीर से जो हमें सता रहा है। उसके साथ हम लड़ नहीं सकते। तब फिर बेचारे स्थूल-शरीर को सताना शुरू कर देते हैं। बात कुछ समझ में नहीं आती। इस शरीर का तो हमें सहयोग प्राप्त करना है। जब इसका सहयोग न मिले तो जैसे-तैसे इसे समझाकर सहयोग लेना है। कभी-कभी
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