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चित्त-शुद्धि और कायोत्सर्ग २५१
कोई प्रतिमा आकर बैठ गयी है। तदाकार-उसी आकार की, अपने शरीर के आकार की। कभी-कभी गहरे अंधेरे में हाथ को देखें। हाथ दिखाई नहीं देगा किन्तु हाथ के आकार की एक आभा दीखने लग जाएगी। पूरा का पूरा विद्युत्मय हाथ दीखने लग जाएगा। अंधकार सघन चाहिए। अपूर्वकरण की प्राप्ति
जब कायोत्सर्ग सघन होता है, कायगुप्ति सघन बन जाती है। काया का संयम गहरा होता है। सर्वथा काया का संवर हो जाता है। बाहर से परमाणुओं को लेना बन्द कर देती है यह काया। परमाणुओं का भीतर आना बन्द हो जाता है। बाहर का संपर्क टूट जाता है। उस स्थिति में अतिसूक्ष्म-शरीर (कर्म-शरीर) के स्पंदन दीखने लग जाते हैं। स्थूल-शरीर को पार करने के पश्चात् तैजस-शरीर के स्पंदन जागते हैं। उस सूक्ष्म-शरीर को पार करने के पश्चात् अतिसूक्ष्म शरीर के स्पंदन जागते हैं। कर्म-शरीर के स्पंदनों को हम पकड़ना शुरू कर देते हैं। उसका साक्षात्कार होते ही हमारी सारी दृष्टि बदल जाती है। सम्यक्-दर्शन जागता है, अपूर्वकरण होता है। जैसा सम्यक्-दर्शन पहले नहीं जागा, वैसा सम्यक्-दर्शन जागता है।
हम मानते थे कि सारा दुःख इस शरीर से होता है। इस शरीर में दुःख के सारे केन्द्र हैं। इस शरीर में वेदनाओं के सारे केन्द्र हैं। इस शरीर में वासनाओं के सारे केन्द्र हैं । इस शरीर में क्रोध, कपट, लोभ, घृणा आदि बुराइयों के केन्द्र हैं। सारा मस्तिष्क इन केन्द्रों से भरा है। सारा ग्रन्थि-तन्त्र इन दायित्वों को निभा रहा है। ये विद्युत् के प्रवाह, ये नाना प्रकार के रसायन, शरीर में पैदा होने वाले केमिकल-इन सारे दायित्वों को निभा रहे हैं। हमारी पूरी की पूरी कल्पना जुड़ी हुई थी स्थूल शरीर के साथ। सारा भार आरोपित कर रहे थे इस स्थूल-शरीर पर। अविवेक का, मूर्खता का, दुःख का, सारा का सारा नाता इस शरीर के साथ जोड़ रहे थे, किन्तु जैसे ही कर्म-शरीर के स्पंदनों का पता चला, वे पकड़ में आए, हमारी भ्रांति टूट गयी। हमें पता चला वास्तविकता का कि यह स्थूल-शरीर तो बेचारा कुछ भी नहीं है। यह तो केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है। जो भी घटना भीतर घटती है यह उसे प्रकट कर देता है। सारा का सारा संचालन-सूत्र भीतर बैठे सेनापति कर्म-शरीर के हाथ में है। बेचारा यह स्थूल-शरीर सैनिक है, लड़ रहा है। सैनिक का काम है-मोर्चे पर जाना। उसका काम है-मरना, मारना। पर सूत्र-संचालन कर्म-शरीर करता है। हमें पता चलेगा कि इस स्थूल-शरीर में जितने केन्द्र हैं, जितने बिन्दु हैं वे सारे के सारे सम्वादी हैं। सूक्ष्म-शरीर में, अतिसूक्ष्म-शरीर में जितनी क्रियाएं चल रही हैं, जितनी क्षमता, अक्षमता चल रही है, उतने ही केन्द्र इस शरीर में बन जाते हैं। वहां से स्रोत चलता है और यहां आकर प्रकट हो जाता है। संचालन का काम कर्म-शरीर
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