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चित्त-शुद्धि और शरीर-प्रेक्षा २४१ प्राण बिलकुल संतुलित हो जाता है। शरीर-प्रेक्षा का दूसरा परिणाम है-चैतन्य केन्द्र निर्मल हो जाते हैं।
पुराने जमाने में रत्न-कंबल होते थे। उनकी धुलाई पानी से नहीं, अग्नि से होती थी। आग में डालो और रत्न-कम्बल निर्मल बन गया। पानी में डालो, कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा। हमारे चैतन्य केन्द्र रत्ल-कम्बल हैं। इनकी धुलाई पानी से नहीं होती। इनका मैल पानी से साफ नहीं होता। इनकी सफाई होगी आग के द्वारा । जब हम शरीर-प्रेक्षा करते हैं, चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा करते हैं तब विद्युत् की धारा, प्राण की धारा इतनी तेज वहां जाती है, जमा हुआ मैल साफ हो जाता है और वह विद्युत्-चुम्बकीय क्षेत्र बन जाता है। निर्मलता आ जाती है और उस निर्मलता में से चैतन्य अभिव्यक्त हो सकता है, बाहर प्रकट हो सकता है। सामान्य नियम को लोग जानते हैं कि लालटेन का शीशा जब अन्धा हो जाता है, बाहर पूरा प्रकाश नहीं आता। बल्ब पर ढक्कन दे दिया जाए, बाहर प्रकाश नहीं आएगा। हमारा चैतन्य केन्द्र जब तक निर्मल नहीं होगा, तब तक भीतर में ज्ञान कितना ही भरा पड़ा है, वह बाहर नहीं फूटेगा, उसकी रश्मियां बाहर को प्रकाशित नहीं कर पाएंगी। इसलिए चैतन्य केन्द्रों को निर्मल बनाना जरूरी है। शरीर-प्रेक्षा के द्वारा ये चैतन्य केन्द्र निर्मल हो जाते हैं। चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा से और अधिक प्राणधारा वहां इकट्ठी होती है और वे निर्मल बन जाते हैं।
शरीर-प्रेक्षा का तीसरा परिणाम है-आनन्द-केन्द्र का जागरण। हमारे चित्त में ऐसे केन्द्र हैं जिनके जागने पर व्यक्ति सदा सुख की स्थिति में रहता है। विज्ञान की भाषा में दो लघु ग्रन्थियां हैं पिछले भाग में, एक सुख की और एक दुःख की। दोनों सटी हुई हैं। एक ग्रन्थि जागृत हो तो व्यक्ति बहुत सुख में रहता है, दूसरी जागृत हो जाए तो आदमी दुःखी बन जाता है। आनन्द का केन्द्र भी हमारे भीतर है। यदि विद्युत् का, प्राणधारा का ठीक प्रवाह वहां पहुंचे, पूरा ताप लगे और उसको जगा पाएं तो फिर आनन्द ही आनन्द हो जाता है। समता, साम्य, अनुकूल और प्रतिकूल स्थिति में एक समान भाव रहना यह असम्भव नहीं है, सम्भव है। हजारों-हजारों साधकों ने इन स्थितियों को सम्भव बनाया। आनंद जीवन जीया। कठिनाई आने पर कोई परिवर्तन नहीं आया। यह तभी सम्भव है कि वह आनन्द-केन्द्र, समता का केन्द्र जागृत हो जाए। शरीर-प्रेक्षा के द्वारा वह केन्द्र जागृत होता है।
शरीर-प्रेक्षा के ये तीन महत्त्वपूर्ण परिणाम हैं-प्राण-प्रवाह का सन्तुलन, चैतन्य केन्द्र की निर्मलता और आनन्द-केन्द्र का जागरण।
शरीर-प्रेक्षा आध्यात्मिक प्रक्रिया है। साथ ही साथ यह मानसिक और शारीरिक प्रक्रिया भी है। स्वास्थ्य के लिए भी बड़ी चिकित्सा है-प्राण-चिकित्सा।
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