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________________ २५. चित्त-शुद्धि और शरीर-प्रेक्षा चित्त-शुद्धि के लिए श्वास का स्थान पहला है और शरीर का स्थान दूसरा । श्वास समूचे शरीर-तन्त्र को प्रभावित करता है। वह प्राण, चेतना, इन्द्रिय, मन, चित्त-सबको प्रभावित करता है, इसलिए उसका स्थान पहला होता है। हमारा शरीर सात धातुओं का शरीर कहा जाता है। सप्त धातुमयं शरीरं-यह पुरानी परिभाषा है, आयुर्वेद की परिभाषा है। आज का विज्ञान कहता है कि सोलह तत्त्व से शरीर बना हुआ है। शरीर का एक स्वरूप है-धातु से बना हुआ, तत्त्व से बना हुआ। हमारी आंखों के सामने वही स्वरूप आता है। चमड़ी, रोम, केश, लोही, स्नायु-जाल, मांस ये सामने आते हैं। शरीर का वही संस्थान हमारे चित्त में जमा हुआ है। शरीर एक और उसे देखने की दृष्टियां अनेक। सामान्य आदमी शरीर को चर्ममय, मांसमय, रक्तमय देखता है। एक डॉक्टर चिकित्सा की दृष्टि से देखता है। उसे और कुछ अधिक बातें दिखाई देती हैं। कोई कामुक होता है वह केवल रंग-रूप की दृष्टि से देखता है। एक साधक शरीर को दूसरी दृष्टि से देखता है। उसका अपना दृष्टिकोण होता है। शरीर माध्यम है। इस माध्यम से ही हमारी अगली यात्रा हो सकती है। इसके अतिरिक्त कोई हमारे पास माध्यम नहीं है। यन्त्र हमारे माध्यम बनते हैं। ये भी तब माध्यम बनते हैं जब शरीर माध्यम बनता है। जिस दिन शरीर माध्यम बनना बन्द हो जाता है, यन्त्र बेकार पड़े रह जाते हैं। कितने ही सूक्ष्मवीक्षण हों, दूरवीक्षण हों, कोई भी यन्त्र हो, सारे के सारे यन्त्र तब माध्यम बनते हैं जब शरीर माध्यम बनता है। हमारे सामने एकमात्र उपाय है-शरीर। इसलिए साधना करने वाले व्यक्ति को भी शरीर को समझना बहुत आवश्यक होता है। जो शरीर को नहीं जानता वह अध्यात्म की गहराइयों में नहीं जा सकता। वह अध्यात्म की ऊंची चढ़ाइयां नहीं चढ़ सकता, आरोहण नहीं कर सकता। आरोहण के लिए उसे शरीर का सहयोग मिलना चाहिए। यह बहुत जरूरी है। वैराग्य की दृष्टि से कुछ धर्म के आचार्यों ने शरीर के विषय में कुछ बातें बताईं-यह शरीर अपवित्र है। मल-मूत्र से भरा है। लोही, पीप, दुर्गन्धि-पदार्थ, कूड़ा-करकट इस शरीर में भरा है। अशौच भावना के लिए, अशौच अनुप्रेक्षा के लिए यह भी एक दृष्टिकोण है। इससे वैराग्य होता है। यह भी सचाई है, यथार्थ है और यह सचाई जब सामने आती है तो मनुष्य को वैराग्य होता है। जब मनुष्य सचाई को नहीं जानता, आंख मूंदकर चलता है, तो वैराग्य नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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