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________________ चित्त-शुद्धि और श्वास-प्रेक्षा २३१ श्वास और आवेग __ काम, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, अहंकार आदि की तरंगें श्वास की चंचलता के बिना नहीं उभरतीं। क्रोध आता है तो श्वास तीव्र हो जाता है या श्वास तीव्र होता है तब क्रोध की तरंग आती है। श्वास शांत होता है तो आवेग शांत हो जाता है, जब आवेग शांत होता है तो श्वास शांत हो जाता है। दोनों का गहरा संबंध है। श्वास का मूल्यांकन नहीं करने वाला समाधि में विघ्न डालने वाले आन्तरिक कारणों से नहीं निपट सकता। इसलिए उसको चाहिए कि वह सबसे पहले श्वास-प्रेक्षा का अभ्यास करे। वह यह जान जाए कि श्वास शांत कब-कैसे किया जा सकता है? कोई भी उत्तेजना की तरंग उठे, श्वास मंद कर दें, उत्तेजना की तरंग शांत हो जाएगी। आरोहण में क्रम है, छलांग नहीं श्वास और शरीर नश्वर हैं। आगे-पीछे इन्हें छोड़ना ही है। फिर इस अशाश्वत साधन से आत्मा जैसा शाश्वत तत्त्व कैसे उपलब्ध होगा? इस क्षण-भंगर साधन से अजर, अमर, अविनाशी चैतन्य का साक्षात्कार कैसे होगा? साधना-काल में ये प्रश्न आते हैं। प्रश्न स्वाभाविक हैं। हमारा उद्देश्य है समाधि को प्राप्त करना। प्राप्ति क्रम से ही संभव है। उसमें छलांग नहीं हो सकती। यदि कोई छलांग भरकर ही आरोहण करता है तो मकान में सीढ़ियों का कोई उपयोग ही नहीं होता। एक-एक सीढ़ी पार करके ही आरोहण किया जा सकता है। छलांग नहीं भरी जाती। चढ़ने का क्रम होगा। वह क्रम द्रुतगामी हो सकता है, मंदगामी हो सकता है। बिना क्रम कोई ऊपर नहीं जा सकता। चैतन्य को उपलब्ध करने का भी एक क्रम है। उस क्रम की पहली सीढ़ी है-श्वास-प्रेक्षा। जो व्यक्ति श्वास को दीर्घ करने का, श्वास को मंद करने का अभ्यास करता है उस व्यक्ति के सामने यह प्रश्न नहीं होता कि मन बहुत चंचल है, इन्द्रियां बहुत सताती हैं, व्यर्थ संकल्प-विकल्प आते हैं। मन और मस्तिष्क बोझिल रहता है। ये सारे प्रश्न अपने आप समाहित हो जाते हैं। श्वास संयम के साथ-साथ इन्द्रियों का संयम, वाणी का संयम, सभी प्रकार के संयम सध जाते हैं। साधक शब्दातीत और विकल्पातीत स्थिति में चला जाता है। क्योंकि प्राण की चंचलता के साथ श्वास का संबंध है और शब्द को संचालित करने वाली है प्राण-धारा। वह शब्द को पकड़ती है। प्राण के द्वारा स्वर-यंत्र सक्रिय होता है। सारी चंचलता शब्द पर आधारित है। चंचलता मन की नहीं होती। चंचलता होती है शब्द की। चंचलता का अर्थ है-स्मृति। शब्द के बिना स्मृति नहीं होती, कल्पना नहीं होती और चिन्तन नहीं होता। स्मृति, कल्पना और चिन्तन शब्दात्मक होते हैं। ये सब चंचलता के हेतु हैं। हमें मन और चित्त को स्थिर नहीं करना है, हमें शब्द को स्थिर करना है। हम शब्दातीत बन जाएं। शब्द समाप्त होता है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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