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चित्त-शुद्धि और श्वास-प्रेक्षा २२७
अधूरा रह जाता है। हमारे दर्शन और ज्ञान की समग्रता तब बनती है जब वस्तु-धर्म और शरीर-धर्म दोनों की खोज हो। शरीर की खोज
समाधि चाहने वाले व्यक्ति के लिए शरीर की खोज अत्यन्त अपेक्षित है। शरीर की खोज किए बिना चंचलता को समाप्त नहीं किया जा सकता और एकाग्रता के चरम-बिन्दु का स्पर्श नहीं किया जा सकता। यद्यपि वस्तु-धर्म की खोज करने वाला व्यक्ति भी एकाग्र होता है, उसका शरीर स्थिर और शान्त होता है किन्तु जितना मूल्य शरीर-प्रेक्षा का है, शरीर की सचाइयों को जानने का है उतना मूल्य प्रारम्भ में वस्तु-धर्म की खोज को नहीं दिया जा सकता।
प्राणी के पास चार उपकरण हैं-शरीर, वाणी, मन और श्वास। ये चारों चंचल हैं। यह चंचलता सबसे बड़ी समस्या है। जब तक चंचलता है, तब तक सत्य को नहीं जाना जा सकता, समाधि तक नहीं पहुंचा जा सकता। समाधि में गए बिना सत्य उपलब्ध नहीं होता, रहस्य अनावृत नहीं होता। हमारे उपकरण या साधन हैं चंचल और हम उपलब्ध करना चाहते हैं स्थिरता। क्या श्वास और शरीर को स्थिर किया जा सकता है? क्या मन और वाणी को स्थिर किया जा सकता है? न केवल साधना करने वाले व्यक्तियों के सामने ये प्रश्न हैं किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिए ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। जो व्यक्ति मन की शान्ति चाहता है, समस्याओं का समाधान चाहता हे, तनावों से मुक्ति चाहता है, अच्छी नींद और अच्छा स्वास्थ्य चाहता है, उसको इन प्रश्नों को समाहित करना होगा। भ्रान्ति और भ्रान्ति
मन बहुत चंचल है। जब चंचलता एक बिन्दु को पार कर जाती है तब आदमी पागल बन जाता है। चित्त का विक्षेप मन का विक्षेप है, चित्त की चंचलता मन की चंचलता है। आदमी चाहता है, चित्त शान्त रहे। आदमी चाहता है, गहरी नींद आए। बिछौने पर जाते ही स्मृति, कल्पना और विचार सताने लग जाते हैं। नींद उचट जाती है। आदमी बेचैन हो जाता है। वह चाहता है, उस समय न स्मृति, न कल्पना और न विचार आए; पर इनसे छूट पाना सहज नहीं होता।
मन को स्थिर नहीं किया जा सकता। लोग भ्रान्तिवश मान लेते हैं कि मन स्थिर हो गया। यह एक ऐसी भ्रान्ति है जिसको समझने वाला भी नहीं समझ सकता। आदमी भ्रांतियों का जीवन जीता है। वह भ्रान्तियों का सहारा लेता है। यदि वह भ्रान्तियों का सहारा न ले तो जैसा जीवन जी रहा है वैसा जीवन कभी जी नहीं सकता। भ्रान्तियों के सहारे ही वह मूर्छा, मोह और दुःखों का जीवन जी रहा है। प्रकृति की व्यवस्था है कि तीव्रतम पीड़ा में आदमी मूर्च्छित हो जाता है। मानसिक जगत् की व्यवस्था है कि चेतना पर इतनी सघन मूर्छा छा जाती है कि आदमी कष्टों और क्लेशों का जीवन जी लेता है। यदि यह
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