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२२८ अप्पाणं सरणं गच्छामि
मूर्छा एक बार भी टूट जाए तो वह ऐसा जीवन कभी नहीं जी सकता। फिर वह व्यवहार का आदमी नहीं रहता। समाज के या परिवार के व्यक्ति नहीं चाहते कि कोई एक व्यक्ति ऐसी जागरूकता का जीवन जीए। वे स्वयं मूर्छा का जीवन जीते हैं और दूसरों को भी इसी चक्रव्यूह में रखना चाहते हैं। व्यवहार में जीने वाला, काम और अर्थ की छाया में जीने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता कि दूसरा कोई इस जंजाल से निकले और अमूर्छा का जीवन जीए। भ्रांति एक मूर्छा है। चंचलता है चित्त की, मन की नहीं
चित्त की चंचलता को मिटाया जा सकता है। चित्त की चंचलता मिट सकती है, पर मन की चंचलता कभी नहीं मिटती। हम मन और चित्त को ठीक से समझें। भ्रान्ति में न रहें। मन का अर्थ है-स्मृति। मन का अर्थ है-कल्पना और मन का अर्थ है-चिन्तन । स्मृति, कल्पना और चिन्तन के अतिरिक्त मन कुछ भी नहीं है। क्या स्मृति, कल्पना और चिन्तन को स्थिर किया जा सकता है? क्या स्मृति, कल्पना और चिन्तन को रोका जा सकता है? कभी नहीं रोका जा सकता। दो अवस्थाएं हैं-या तो मन होगा या मन नहीं होगा। मन होगा तो चंचलता अवश्य होगी। मन को स्थिर नहीं किया जा सकता। चित्त को स्थिर किया जा सकता है। सारी चंचलता चित्त की है। स्थिरता चित्त की होगी, मन की नहीं। मन तो चंचल ही है, वह क्या स्थिर होगा! उसके घटक चंचल हैं। वह फिर स्थिर कैसे होगा? मन को स्थिर करने का अर्थ होगा मन को अमन बना देना। जो स्थिर अवस्था है वह अमन है, मन नहीं।
वाणी, शरीर और श्वास को स्थिर किया जा सकता है। मन को अमन बनाया जा सकता है। हम श्वास के साथ नहीं चलते __हमारी समाधि की यात्रा शरीर-प्रेक्षा से प्रारंभ होती है, श्वास-प्रेक्षा से प्रारंभ होती है। श्वास हमारे साथ चल रहा है, हम श्वास के साथ नहीं चल रहे हैं, यह बहुत बड़ी कठिनाई है। श्वास-प्रेक्षा तब फलवती होती है, जब हम श्वास के साथ चलते हैं। जब तक हम श्वास का मूल्यांकन नहीं कर पाते, तब तक उसके साथ चलने की बात पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं होती।
एक बहुत बड़ा कलाकार था। वह जिस मुहल्ले में रहता था वहां अनेक धनी लोग रहते थे। वह घूमने निकलता। जो भी सामने मिलता, वह उसका अभिवादन करता। धनी लोग भी घूमने निकलते। कलाकार विनम्रता से उन्हें प्रणाम करता।
एक बार राजा ने कलाकार को अपने दरबार में आमंत्रित किया। साथ ही साथ उस मुहल्ले के धनी लोगों को भी निमंत्रण दिया। राजा दरबार में बैठा
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