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२२६ अप्पाणं सरणं गच्छामि
यथार्थ को देखने में सबसे बड़ी बाधा है-चित्त की चंचलता। जब चित्त चंचल होता है तब यथार्थ दिखाई नहीं देता, दूसरा-दूसरा रूप ही दिखाई देता है। जिसका चित्त स्थिर हो गया, चेतना का समुद्र निस्तरंग और शान्त हो गया, वह यथार्थ को सहजतया देख सकता है। कोई बाधा नहीं आती। वह यथार्थ के अन्तराल का स्पर्श कर लेता है। ध्येय की सीमा नहीं
विश्व का प्रत्येक पदार्थ और पदार्थ का प्रत्येक पर्याय ध्यान के लिए आलंबन बन सकता है, ध्येय बन सकता है। इसलिए ध्येय के लिए कोई सीमा नहीं बनाई जा सकती कि अमुक प्रकार का ही ध्येय होना चाहिए। प्रारम्भ में ध्यान-साधक के लिए कुछ विशेष प्रकार के ध्येयों का निर्देश इसीलिए करते हैं कि वे ध्यान सीखने में सहायक बन सकें। वे शीघ्रता से उन्हें ध्यान में आरूढ़ कर सकें। बच्चे को चलना सिखाने के लिए प्रारम्भ में उसे कुछ कहना-सुनना पड़ता है। जब बच्चा चलना सीख जाता है तब वह अपनी इच्छानुसार आ-जा सकता है। फिर चलना सिखाने के लिए मार्गदर्शन अपेक्षित नहीं होता। इसी प्रकार ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में ध्यान-साधक को ध्येय सम्बन्धी क मार्गदर्शन देना आवश्यक होता है। वस्तु-सत्य
यदि ध्येयों का वर्गीकरण किया जाए तो दो मुख्य ध्येय बनते हैं-वस्तु-जगत् और शरीर । जो दृश्य-जगत् हमारी आंखों के सामने है, कानों के समक्ष है, त्वचा और रसना के समक्ष है, घ्राण के समक्ष या मानसिक वृत्तियों के समक्ष है, वह सारा दृश्य-जगत् या वस्तु-जगत् ध्येय बन सकता है। इसी प्रकार शरीर भी ध्येय बन सकता है। सत्य की खोज करने वाले व्यक्ति इन दोनों ध्येयों को सामने रखते हैं और इनके सहारे ध्यान की सिद्धि को उपलब्ध हो जाते हैं।
वस्तु-सत्य को जानना बहुत आवश्यक है। ध्यान किए बिना कोई भी व्यक्ति वस्तु-सत्य को नहीं जान सकता। आज तक दुनिया में जितने लोगों ने सचाइयों को खोजा है, उन सबने ध्यान के द्वारा खोजा है। चंचलता के द्वारा वस्तु-सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। चित्त के नियोजन और एकाग्रता के बिना सत्य को नहीं खोजा जा सकता। वस्तु-धर्म की खोज ध्यान के द्वारा हुई। शरीर के सारे रहस्य ध्यान के द्वारा आविष्कृत हुए। शरीर में घटित होने वाले प्रत्येक परिणमन का, उभरने वाली प्रत्येक पर्याय का बोध ध्यान के द्वारा हुआ। ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिए दोनों बातें जरूरी हैं। वह वस्तु-सत्य की खोज करे और शरीर-सत्य की खोज करे। जो केवल वस्तु-सत्यों की ही खोज करता है और शरीर-धर्मों की खोज नहीं करता, वह अधूरा रह जाता है। जो केवल शरीर-धर्मों की खोज करता है और वस्तु-धर्मों की खोज नहीं करता, वह भी
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