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२२४ अप्पाणं सरणं गच्छामि
की शक्ति उपलब्ध हो गई। यह तो प्रारम्भिक बिन्दु है, अत्यन्त प्राथमिक अवस्था
ध्यान कब-कहां?
इस संदर्भ में विचय-ध्यान के विषय में कुछेक प्रश्न उभरते हैं-विचय-ध्यान के लिए क्या-क्या सामग्री अपेक्षित होती है? उसके लिए स्थान और समय की क्या मर्यादाएं हैं? उसके लिए आसन और मुद्रा कौन-सी होनी चाहिए? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं। आचार्यों ने अपने अनुभव के द्वारा बतलाया कि विचय-ध्यान के लिए देश और काल की कोई मर्यादा नहीं हो सकती। अमुक स्थान और अमुक काल में ही ध्यान किया जाए-यह निर्धारणा नहीं हो सकती। ध्यान के लिए एक ही नियम पर्याप्त है कि जिस समय में या जिस स्थान पर ध्यान करने से चित्त की एकाग्रता सधती है, वह समय और स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है। जिस आसन में और जिस मुद्रा में चित्त की समाधि उपलब्ध हो, वही आसन और मुद्रा ध्यान के लिए उपयोगी है। मूल बात स्थान या काल नहीं है, आसन या मुद्रा नहीं है । मूल बात है-चित्त की समाधि, मन का समाधान, वाणी का समाधान और शरीर का समाधान। जब जहां ये तीनों सधते हैं वही समाधि के लिए उपयुक्त है।
विचय की प्रक्रिया को समझ लेने पर ध्यान की बहुत बड़ी प्रक्रिया हस्तगत हो जाती है। हमारे हाथ में एक बहुत बड़ा आलंबन आ जाता है। वह आलंबन है संयम का, संवर का, समता का और सामायिक का । विचय-ध्यान के बिना संयम घटित नहीं हो सकता। विचय-ध्यान के बिना संवर घटित नहीं हो सकता। विचय-ध्यान के बिना सामायिक घटित नहीं हो सकता, मन में समता का अवतरण नहीं हो सकता।
इसलिए समाधि की अभ्यर्थना करने वाला साधक, समाधि को उपलब्ध होने की भावना रखने वाला साधक, दर्शन और ज्ञान की क्षमता को विकसित करने वाला साधक, सबसे पहले विचय-ध्यान का आलंबन ले। उसके सहारे वस्तु-सत्यों को खोजे, वस्तु-स्वभाव को जाने। जो वस्तु-स्वभाव को जानता है, उसे प्रियता और अप्रियता के संवेदन से, राग और द्वेष से, अहंकार और ममकार से मुक्ति पाने का बहुत सरल उपाय उपलब्ध हो जाता है।
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