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________________ चित्त-शुद्धि और समाधि २१७ और शक्ति की आराधना किए बिना कोई भी व्यक्ति समाधि में नहीं जा सकता। समाधि की प्राप्ति के लिए उनकी आराधना आवश्यक है। ज्ञान स्वयं समाधि है। दर्शन स्वयं समाधि है। आनन्द स्वयं समाधि है। शक्ति स्वयं समाधि है। यह सब सहज समाधि है, क्योंकि ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति-ये आत्मा के स्वभाव हैं। जब-जब और जहां-जहां आत्मा से दूरी होती है, तब-तब और वहां-वहां समाधि का भंग होता हैं। जब-जब और जहां-जहां आत्मा की निकटता होती है, तब-तब और वहां-वहां समाधि घटित होती है। समाधि आत्मा का स्वभाव है, चैतन्य का स्वभाव है, सहज अवस्था विस्तार क्यों? जब केवल देखना और केवल जानना समाधि है तो केवल देखें. केवल जानें। जानते रहें, देखते रहें। बस, इतना पर्याप्त है। यह सारा प्रपंच क्यों? श्वास और शरीर-प्रेक्षा क्यों? कायोत्सर्ग और रंग-ध्यान क्यों? बात ठीक है। केवल जानना और देखना है। पद्धति सहज और सरल है। परंतु कभी-कभी जो सहज-सरल होता है वह कठिन भी बन जाता है। सरल सरलता से उपलब्ध नहीं होता। सरल को उपलब्ध करने के लिए अनेक कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। संतों ने अनेक बार गाया-सहज समाधि भली। यह सुनने और कहने में सरल लगता है। पर जब सहज समाधि की साधना करने का प्रश्न आता है, तब अटपटा-सा लगता है। यदि समाधि की उपलब्धि सहज होती तो दुनिया असमाधि में क्यों रहती? व्यक्ति मानसिक उलझनों और तनावों का शिकार क्यों होता? हर आदमी सहज समाधि में चला जाता। जिसने सोचा, वह सहज समाधि में चला गया। बात सीधी-सी लगती है, पर है बहुत ही टेढ़ी। सभी जानते हैं, रोटी खाने से भूख मिटती है, पेट भरता है। रोटी खाने और पेट भरने में कोई दूरी नहीं है, कोई उलझन नहीं है। किन्तु रोटी को उपलब्ध करने में कितनी उलझनें हैं। रोटी खाओ, पेट भर जाएगा-यह बात जितनी सीधी है, रोटी को उपलब्ध करना उतना सीधा नहीं है। उसको प्राप्त करने के लिए सारा प्रपंच, विस्तार और व्यवसाय किया जाता है। खाने के लिए कोई प्रपंच नहीं है, कोई विस्तार नहीं है, कोई व्यवसाय नहीं है। देखो, समाधि प्राप्त हो जाएगी। जानो, समाधि प्राप्त हो जाएगी। बात सीधी है, किन्तु देखने और जानने की क्षमता कैसे उपलब्ध हो, यह जटिल बात है। यह सारा प्रपंच और विस्तार उस क्षमता को पैदा करने के लिए हैं। यह प्रयत्न इसीलिए है कि देखने और जानने की इतनी क्षमता बढ़ जाए कि हम जब चाहें तब देख लें और जब चाहें तब जान लें। कोई व्यवधान न हो, कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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