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२१२ अप्पाणं सरणं गच्छामि
होता है तब पारिवारिक व्यवस्थाएं समाप्त हो जाती हैं, सामाजिक और मानवीय मूल्य आंखों से ओझल हो जाते हैं। इसीलिए मनुष्य ने निर्णय लिया कि सामाजिक जीवन जीना है तो समय-समय पर उठने वाली तरंगों पर नियन्त्रण करना होगा। सामाजिक व्यवस्थाओं को मानने के पीछे मनुष्य का यही चिन्तन है। यह चिन्तन भी भय पर टिका होता है। आदमी भय के कारण ही ऐसा कर रहा है। वह सोचता है, लोग क्या कहेंगे? अच्छा नहीं लगेगा। यह चिन्तन आदमी को सामाजिक नियन्त्रणों में बांधे रखता है। यह तरंग को दबाने की प्रक्रिया तो है; परन्तु जहां से तरंग उठती है, उस मूल को समाप्त करने की प्रक्रिया नहीं है। चोर को मारने से क्या होगा? जब तक मां मौजूद है तो चोर उत्पन्न होते ही रहेंगे। मूल बात है, चोर को नहीं, चोर की मां को समाप्त करना है। मूल पर प्रहार
मूल को समाप्त करना चाहिए। ऊपर का नियन्त्रण एक तरंग को दबाता है तो दूसरी उठ जाती है। दूसरी को दबाता है तो तीसरी उभर आती है। यह क्रम रुकता नहीं।
अध्यात्म के साधकों ने कहा-तरंगों को दबाने से काम नहीं होगा। हमें मूल पर प्रहार करना चाहिए। निर्विकल्प चेतना तक पहुंचने पर ये सारी समस्याएं समाहित हो जाती हैं। निर्विकल्प चेतना का नाम है-दर्शन। यदि दर्शन की भूमिका का अभ्यास किया जाए, निर्विकल्प चेतना की आराधना की जाए तो एक दिन ऐसा आ सकता है कि विकल्प की तरंगें उठनी कम हो जाती हैं और एक दिन वे पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती हैं।
अध्यात्म के साधकों ने केवल-ज्ञान की खोज की। केवल-ज्ञान की साधना। ज्ञान चले। आकार रहे। विकल्प चले। किन्तु विकल्प के साथ राग और द्वेष न हों। दोनों को अलग कर दिया जाए। पानी को फिल्टर कर दिया जाए। केवल पानी रहे, मिश्रित द्रव्य अलग हो जाएं। दो खोजें
अध्यात्म के आचार्यों की ये दो महत्त्वपूर्ण खोजे हैं१. निर्विकल्प चेतना-दर्शन चेतना। २. राग-द्वेषमुक्त विकल्प चेतना-ज्ञान चेतना।
इनकी साधना पूर्ण साधना है। साधना की सारी पद्धतियां इन दो में समाहित हो जाती हैं। जैसे नदियां समुद्र में मिल जाती हैं, वैसे ही सारी साधना-पद्धतियां केवल-दर्शन की साधना-पद्धति में और केवल ज्ञान की साधना पद्धति में मिल जाती हैं। इनसे परे साधना की कोई तीसरी पद्धति नहीं
महर्षि पतंजलि ने कहा-'यथाभिमतध्यानाद् वा' (१/३६)-ध्यान की
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