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________________ केवल-ज्ञान की साधना २११ भी नहीं रुका। यह दुनिया विचित्र है। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को ठगने का प्रयत्न करता है। ठगने वाला यह कभी नहीं सोचता कि वह स्वयं ठगा जा रहा है। वह हमेशा यह सोचता है-मैं दूसरों को ठगता हूं। जब मस्तिष्क में उठने वाली तरंगें समाप्त हो जाती हैं तब आदमी को सचाई का पता लगता है कि दूसरों की हत्या करने वाला स्वयं की हत्या करता है, दूसरों को ठगने वाला स्वयं को ठगता है, दूसरों को सताने वाला स्वयं को सताता है। सागर शान्त और गम्भीर होता है। पर जब उसमें तूफान आता है तब वह उफनने लग जाता है। वह चंचल बन जाता है। मस्तिष्क में विकल्पों का तूफान न हो तो वह शान्त रहता है। विकल्प उसे तरंगित कर देते हैं। इस दुनिया में जीने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके मन में राग-द्वेष की तरंग न उठती हो, अहं और स्वार्थ की तरंग न उठती हो, लालच और ईर्ष्या की तरंग न उठती हो । लालच की तरंग प्रबल होती है तो सब संबंध विसंबंध हो जाते हैं। भाई भाई को मारने के लिए उतारू हो जाता है। दो भाई धन कमाकर घर आ रहे थे। एक के मन में यह तरंग उठी-धन का बंटवारा होगा। आधा धन भाई को देना पड़ेगा। क्यों न उसे समाप्त कर पूरे धन का मालिक मैं ही बन जाऊं। ये तरंगें उठती हैं। गृहस्थ के मन में ही नहीं, साधु-संन्यासी भी इन तरंगों से शून्य नहीं हैं। हमारे मस्तिष्क में इन तरंगों को पैदा करने वाले इतने यन्त्र हैं कि वे कच्चे माल को पक्का माल बनाकर प्रेषित करते हैं। क्या हुआ कोई मुनि या संन्यासी बन गया तो? उसने केवल संकल्प ले लिया कि आगे से वह अकल्याणकारी कार्य नहीं करेगा, परन्तु जो भंडार पहले से भरा पड़ा है, उसका फल उसे भोगना ही होगा। जब तक पूरी निर्जरा या रेचन नहीं होगा, जब तक प्रागसंचित का पूरा विसर्जन नहीं होगा, तब तक भीतर उसकी क्रिया होती रहेगी और प्रतिक्रिया अभिव्यक्त होती रहेगी। तरंगों का जीवन प्रत्येक व्यक्ति तरंगों का जीवन जी रहा है। यदि तरंगों का जीवन जीने में कठिनाई न हो, दुःख न हो, तनाव न हो तो वैसा जीवन जीने में कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु तरंगों का जीवन जीने में समस्याएं और अनगिन मानसिक उलझनें हैं, इसलिए उससे हटकर निस्तरंग जीवन जीना चाहता है आदमी। क्या नदी को यह ज्ञात नहीं है कि तट पर उगे हुए वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाने वाले हैं? पर जब नदी तरंगित होती है तो वह तट पर स्थित वृक्षों को धराशायी करती हुई आगे बढ़ती है। तट नदी की शोभा बढ़ाते हैं, पर वह तरंगित नदी उन्हें भी तोड़कर छितरा जाती है। नदी की ही बात नहीं, मनुष्य भी जब तरंगित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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