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२०४ अप्पाणं सरणं गच्छामि
व्याधि, आधि और उपाधि के जीवन से हटकर, समाधि का जीवन जीना चाहते हैं, समाधानपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं, सुख और आनन्द का जीवन जीना चाहते हैं तो ज्ञान और दर्शन का संतुलन स्थापित करें। आपका संतुलन बिगड़ गया है। दर्शन तो छूट गया, कोरा ज्ञान ही ज्ञान चल रहा है। अविचार तो छूट गया, कोरा विचार ही विचार चल रहा है। अविकल्प की चेतना तो छूट गई, कोरा विकल्प ही विकल्प चल रहा है। तराजू का एक पलड़ा ऊंचा हो गया, एक पलड़ा अति नीचा हो गया। संतुलन बिगड़ गया। संतुलन को स्थापित करने की जरूरत है। जीवन को संतुलित बनाएं। यदि आप ज्ञान का जीवन जीते हैं, विचार, विकल्प और स्मृति का जीवन जीते हैं तो उसके साथ-साथ निर्विचार, निर्विकल्प और स्मृतिशून्य जीवन जीना भी सीख जाएं। यह है केवल-दर्शन की
साधना ।
मैं कौन हूं?
जब केवल दर्शन की साधना उपलब्ध होती है तो व्यक्ति फिर एक प्रश्न खड़ा करता है। दर्शन के बाद प्रश्न उभरता है- 'मैं कौन हूं?' अभी हमें अपने अस्तित्व का कोई पता नहीं है और जब हम ज्ञान की भूमिका में होते हैं, हमें अपने अस्तित्व का कोई पता नहीं होता । ज्ञान की भूमिका में रहने वाला आदमी कभी किसी गुरु के पास भटकता है और कभी किसी गुरु के पास भटकता है । वह अपने बारे में जानना चाहता है कि 'मैं कौन हूं'? आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? धर्म क्या है? इन प्रश्नों का लम्बा-सा स्मृतिपत्र लिये घूमता-फिरता है । प्रश्न करता है, उत्तर लेता है, पर समझ में कुछ नहीं आता । खाली का खाली रहता है । किन्तु व्यक्ति जब ज्ञान की भूमिका से हटकर थोड़ा भी दर्शन करना सीख लेता है, देखना सीख लेता है, सारे प्रश्न समाप्त हो जाते हैं । यह प्रश्नों की लम्बी तालिका अपनी मौत मर जाती है। समाप्त हो जाती है। फिर दर्शन के समय में, निर्विकल्प चेतना के समय में, निर्विचारता की अवस्था में 'है' का बोध होता है । 'है' का, केवल 'है' का । 'मैं हूं' का बोध नहीं होता । दर्शन के जगत् में 'हूं' जैसा प्रयोग नहीं होता। 'मैं हूं'- ' - यह दर्शन के क्षेत्र में सर्वथा वर्जित प्रयोग है। दर्शन की सीमा में 'वह है' का प्रयोग भी वर्जित है । 'तुम हो' यह प्रयोग भी वर्जित है । दर्शन की सीमा में केवल 'है' का प्रयोग चलता है । एक 'है' के सिवाय कुछ भी नहीं है । केवल 'है' न प्रथम पुरुष, न मध्यम पुरुष और न उत्तम पुरुष । न पुरुष और न स्त्री । न मकान, न जंगल । कुछ भी नहीं । केवल 'है' के सिवाय कुछ भी नहीं है । इस चेतना का नाम है - संग्रह - चेतना । इस नय का नाम है-संग्रह- नय। जहां केवल 'है' है, इसके सिवाय कुछ भी नहीं है । जब यह स्थिति होती है, तब चेतना शक्तिशाली बनती है । यह चेतना बलवान् बनती है तो फिर अपने आप पता चलता है कि 'मैं
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