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केवल-दर्शन की साधना २०३
कल्पनाओं के साथ, वृत्तियों के साथ, इन सामाजिक मूल्यों के साथ जीना होगा
और यदि हम अविकास चाहते हैं तो हमें वहां लौटना होगा जहां स्मृतियां नहीं, विकल्प नहीं, कल्पनाएं नहीं और सामाजिक मूल्य भी समाप्त। आखिर क्या चाहते हैं? इस प्रश्न की समीक्षा में मेरे सामने दो रास्ते हैं, एक ज्ञेय का और दूसरा ध्येय का। एक ज्ञान का और दूसरा ध्यान का। ज्ञान के साथ ज्ञेय का सम्बन्ध है, ध्यान के साथ ध्येय का सम्बन्ध है। यदि हम केवल ज्ञान की भूमिका में जीना चाहते हैं तो विकल्पों के साथ हमें जीना होगा, जूझना होगा, संघर्ष करना होगा और उन मानसिक तनावों को भी झेलते रहना होगा। यदि हम ध्येय की भूमिका में जाना चाहते हैं, यदि हम ध्यान की भूमिका में जीना चाहते हैं तो फिर ज्ञान से दर्शन की ओर लौटना होगा। यह बहुत जरूरी है। यदि आप विकल्पों से उत्पन्न होने वाली मानसिक समस्याओं से मुक्ति चाहते हैं तो दर्शन की भूमिका में जाना होगा। जितने विकल्प ज्यादा बढ़ते हैं, उतनी मन की अशान्ति ज्यादा बढ़ती है। जितने विकल्प ज्यादा होते हैं, उतनी हमारी शक्तियां ज्यादा खर्च होती हैं। जितनी कल्पनाएं ज्यादा होती हैं, आदमी के सिर पर भार उतना ही ज्यादा होता है। यदि इस सचाई का पता चल गया तो आपको उल्टा चलना पड़ेगा। यानी विकल्प से निर्विकल्प की ओर, विचार से निर्विचार की ओर, ज्ञान से दर्शन की ओर, सामाजिक मूल्यों से हटकर आन्तरिक मूल्यों की ओर जाना होगा। दर्शन और ज्ञान का संतुलन ___ दर्शन हमारा शत-प्रतिशत मूल्य है। दर्शन हमारा आन्तरिक मूल्य है। दर्शन हमारा आन्तरिक प्रकाश है। दर्शन चेतना का अपना केन्द्र है। ज्ञान बाहर को ज्यादा प्रकाशित करता है। ज्ञान सामाजिक मूल्यों को ज्यादा महत्त्व देता है। ज्ञान विस्तार को ज्यादा मूल्य देता है, महत्त्व देता है। वह केन्द्र को कम मूल्य देता है। ज्ञान है-बाह्य-केन्द्रित चेतना और दर्शन है-आत्म-केन्द्रित चेतना। मैं यह परामर्श दूं एक सामाजिक प्राणी को कि वह सामाजिक मूल्यों से हटकर केवल आत्मिक मूल्यों पर आ जाए, बाह्य-केन्द्रित चेतना से हटकर केवल आत्म-प्रतिष्ठित चेतना में आ जाए तो शायद व्यावहारिक बात नहीं होगी। जीना है तो जीने के साथ कल्पनाओं को छोड़ा नहीं जा सकता। जीना है तो जीने के साथ स्मृतियों को छोड़ा नहीं जा सकता। इस जीवन की यात्रा को चलाना है तो विचार को छोड़ा नहीं जा सकता। मैं कैसे यह परामर्श दूं कि आप निर्विचार बन जाएं, निर्विकल्प बन जाएं, स्मृतिशून्य बन जाएं, चिन्तनशून्य बन जाएं और इन मूल्यों की दुनिया से हटकर निर्मूल्यों की दुनिया में चले जाएं? शायद यह परामर्श देना न्याय नहीं होगा और अन्याय की बात करने का कोई अर्थ नहीं होगा। किन्तु एक परामर्श अवश्य देना चाहूंगा। यदि आप समाधि चाहते हैं,
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