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२०२ अप्पाणं सरणं गच्छामि
आदमी होता है। पशु पशु होता है। 'होता है। इसके सिवाय कोई मूल्यांकन नहीं होता। ये मूल्यांकन की दृष्टियां सारी रागात्मक और द्वेषात्मक मूल्यों के कारण बनती हैं। यदि हमारी बुद्धि में रागात्मक भावना का जन्म न हो, यदि हमारी दृष्टि में द्वेषात्मक भावना का जन्म न हो, यदि हमारी दृष्टि में प्रियता-अप्रियता का जन्म न हो तो मूल्यांकन का यह विस्तार नहीं हो सकता। हमने इन मूल्यांकनों के कारण कितने भेदों का विस्तार कर दिया? कितना जाल बिछा दिया और कितनी कठिनाइयां पैदा कर दीं? व्यवहार की भूमिका पर जीने वाला आदमी सोचता है, यदि यह मूल्य समाप्त हो जाए तो हमारी सारी प्रवृत्तियां समाप्त हो जायें। यदि गधे में और घोड़े में कोई अन्तर न रहे तो फिर घोड़े पर चढ़ने वाला बड़ा आदमी और गधे पर चढ़ने वाला कुम्हार नहीं हो सकता, छोटा आदमी नहीं हो सकता। यदि सुरूप और कुरूप का कोई अन्तर न रहे तो फिर कोई भी आदमी विवाह के लिए खोज करने को नहीं निकलेगा। जो भी लड़की मिल गई, जो जैसा लड़का मिल गया, और विवाह संपन्न हो गया। खोज की कोई जरूरत नहीं होगी। यदि कांच में और मणि में अन्तर न हो तो कोई जौहरी नहीं बनेगा और कांच का फिर कम मूल्य नहीं होगा। जौहरी कौन होता है? वह होता है जो कांच और मणि में अन्तर करता है। कांच का मूल्य कम करता है और मणि का मूल्य ज्यादा करता है। वह जौहरी अकुशल परीक्षक होता है जिसे पता ही नहीं कि कांच का क्या मूल्य होगा और मणि का क्या मूल्य होगा?
वही जब एक परीक्षक की दृष्टि में आता है तो उसका मूल्य हो जाता है। हमारे सारे मूल्य समाप्त हो जाते, समाज के सारे मूल्य समाप्त हो जाते यदि यह विकल्प की स्थिति समाप्त हो जाती। जब तक व्यक्ति नहीं जानता, तब तक उसके लिए कांच और रत्न एक होता है, किन्तु जब जान जाता है, कांच कांच हो जाता है, रत्न रत्न हो जाता है। यदि हम दर्शन की भूमिका में चले जायें, निर्विकल्प की भूमिका में चले जायें, हमारे व्यवहार के सारे मूल्य समाप्त हो जाएं तो फिर कांच कांच, रत्न रत्न नहीं होगा, दोनों में कोई अन्तर नहीं होगा। कांच कोरा कांच होगा, रत्न कोरा रत्न होगा। किन्तु न कांच का अवमूल्यन होगा, न रत्न का मूल्यांकन होगा। विकास की भूमिका : अविकास की भूमिका
दर्शन से ज्ञान की भूमिका में जाने का मतलब है विकास की भूमिका में जाना और ज्ञान से दर्शन की भूमिका में आने का मतलब है अविकास की भूमिका में आना। हम क्या चाहते हैं? सामाजिक विकास चाहते हैं या समाज को फिर से दस-बीस हजार वर्ष पुरानी अवस्था में ले जाना चाहते हैं? क्या चाहते हैं आखिर? यदि विकास चाहते हैं तो हमें ज्ञान की भूमिका में जीना होगा,
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