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२१. केवल-दर्शन की साधना
चेतना पर जो पर्दा है उसे हटाना सबको अच्छा लगता है। चेतना अनावृत हो, यह जरूरी है। उसे अनावृत करने के लिए केवल-दर्शन की साधना करनी होगी, केवल-ज्ञान की साधना करनी होगी। केवल-दर्शन की साधना किये बिना चेतना का आवरण दूर नहीं हो सकता। केवल-ज्ञान की साधना किये बिना चेतना का आवरण दूर नहीं हो सकता। पहले केवल-दर्शन की साधना, फिर केवल-ज्ञान की साधना। देखना सीखें। प्रेक्षा का अर्थ है-देखना। हम विचार करना जानते हैं, याद करना जानते हैं, कल्पना करना जानते हैं, मनन करना जानते हैं, किन्तु देखना नहीं जानते। जो आदमी देखना नहीं जानता, वह आवरण को दूर नहीं कर सकता। प्रश्न होगा देखना क्या है? क्या आंखों से देखना ही देखना है? अगर आंखों से देखना ही देखना है तो सब आदमी देखते हैं। जिन्हें आंखें उपलब्ध हैं, जो आंखें खुली रखते हैं, वे सब देखते हैं। कोई भी चक्षुष्मान् आदमी नहीं होगा जो न देखता हो। सब देखते हैं। हर आदमी देखता है। तो फिर क्या अद्भुत बात है जो हम देखना सीखें? आंखों से देखना देखना नहीं है। यह केवल-दर्शन नहीं है। देखना कुछ और है। जब हमारी चेतना की प्रवृत्ति होती है, चेतना सक्रिय होती है, किन्तु उसके साथ कोई विकल्प नहीं होता, कोई शब्द नहीं होता, कोई कल्पना नहीं होती, कोई विचार नहीं होता, कोई चिन्तन नहीं होता, कोई मनन नहीं होता, कोई स्वप्न नहीं होता, उस चेतना का उपयोग या सक्रियता का नाम है-देखना। देखने में केवल देखना होता है, कोरा अनुभव होता है, और कुछ भी नहीं होता। हम देखना कहां जानते हैं? एक क्षण के लिए श्वास को देखने के लिए बैठते हैं, तो देखना बन्द हो जाता है। या तो स्मृतियां आने लग जाती हैं, या कल्पनाएं शुरू हो जाती हैं, चिन्तन शुरू हो जाता है, देखना बन्द हो जाता है। देखना, दर्शन हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। आत्म-चेतना की सहज प्रवृत्ति है देखना और जानना। देखना और जानना दो बातें हैं। दर्शन और ज्ञान, ये दो हैं। प्रश्न होगा-देखने
और जानने में क्या फर्क पड़ता है? हम देखते हैं तब जानते हैं, जानते हैं तब देखते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है। हृदय निरन्तर धड़कता है। हृदय बन्द नहीं होता। जब तक आदमी जीता है, हृदय गति करता रहता है, धड़कता है, किन्तु आपको पता है कि यदि हृदय निरन्तर धड़कता रहे, तो हृदय टूट जाये, चल नहीं सकता। कोई भी शक्ति इस संसार में निरन्तर गतिशील नहीं रह सकती। हृदय धड़कता
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