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१६२ अप्पाणं सरणं गच्छामि
हैं यह क्यों ? जब चैतन्य है तो यह आवरण क्यों? यह आवरण कैसे मिटे? प्रश्न खड़ा होगा ।
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जब सुख है, आनन्द है तो बाधा क्यों ? बाधा आती है । रोग हो गया, सुख नहीं रहा । मन में उलझन आयी, सुख नहीं रहा । गुस्सा आ गया, सुख नहीं रहा। यह क्यों ? सुख निर्बाध क्यों नहीं है? अनाबाध सुख क्यों नहीं है ?
शक्ति है तो शक्ति स्खलित क्यों हो जाती है? एक काम करने की शक्ति है और दूसरा काम करने की शक्ति नहीं है । शक्ति में कितनी स्खलनाएं होती हैं । एक आदमी भार उठा सकता है-एक मन भार उठा लेता है, पांच मन भार नहीं उठा सकता । एक आदमी पांच मील चल सकता है, दस मील नहीं चल सकता। रास्ते में अवरोध आ जाता है। यह क्यों ?
चैतन्य पर आवरण क्यों ? आनन्द में बाधा क्यों? शक्ति में स्खलन क्यों ? - ये तीनों प्रश्न सामने उपस्थित होते हैं ।
संन्यासी के पास एक गरीब आदमी पहुंचा । याचना की मुद्रा में बोला - 'बाबा, कुछ दो । बड़ा दुःखी हूं। कुछ दो ।' संन्यासी ने कहा- 'मेरे पास मांगने आया है। मैं क्या दूंगा ? मेरे पास पैसा नहीं है, तुझे क्या दूंगा ?' संन्यासी ने टालने का प्रयत्न किया । वह भी पक्का था, टला नहीं । जमकर बैठ गया कि देना ही होगा। संन्यास ने एक डिबिया दी । उसने कहा- 'डिबिया का क्या करूं? इसमें क्या है ?' संन्यासी ने कहा, इसे खोलो। उसने डिबिया खोली। उसमें एक कपड़ा और कपड़े के भीतर एक पत्थर था । उसने कहा- 'पत्थर का क्या करूं?' संन्यासी बोला- 'पत्थर नहीं है । यह पारसमणि है । लोहे को छुआओ तो सोना बन जाएगा ।' उस आदमी ने डिबिया को लिया, फिर मन में एक विकल्प उठा, बोला- ' बाबा ! बात समझ में नहीं आयी । यदि इस पारसमणि से लोहा सोना बन जाए, तो आपकी डिबिया भी सोना बन जाती ।' तर्क बिलकुल उचित था । पारसमणि से लोहा यदि सोना बनता है, तो डिबिया सोना क्यों नहीं बनी? संन्यासी ने कहा- 'ठीक कहते हो तुम । बुद्धिमान आदमी हो, ठीक कहते हो । पर यह डिबिया इसलिए सोने की नहीं बनी कि पारसमणि और लोहे की डिबिया के बीच यह कपड़े का आवरण है । इस कपड़े को हटाओ, फिर देखो ।' कपड़े को हटाया, आवरण दूर किया और पारसमणि ने डिबिया को छुआ - डिबिया सोने की हो गई ।
समाधि के लिए और कुछ नहीं करना है । केवल आवरण को हटाना है । पारसमणि हर व्यक्ति के पास है, मेरे पास भी है और आपके पास भी है । किन्तु एक कपड़े का आवरण बीच में आया हुआ है। आवरण हट जाए तो हर व्यक्ति सोना बन सकता है । केवल आवरण को हटाने की जरूरत है । हमारे ज्ञान पर आवरण है, हमारे दर्शन पर आवरण है । जब तक यह आवरण नहीं हटता, तब
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