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________________ अपनी खोज १६१ है। समाधि कुछ लोगों के लिए नहीं है । समाधि जीवन के शिखर पर पहुंचने के बाद होने वाली घटना नहीं है । समाधि हमारे जीवन की दिशा है । समाधि हमारे जीवन का एक मार्ग है। यह जीवन की एक पद्धति है । जो इस जीवन की पद्धति को समझ लेता है, जीवन की कला को समझ लेता है, जीवन के विज्ञान को समझ लेता है वह शान्त और सहज जीवन जीता है। वह व्यक्ति निर्लिप्त जीवन जीता है। किसी कीचड़ में रहे हुए कमल के पत्ते का जीवन जीता है कि जिस पर कीचड़ भी गिरता है, पानी भी गिरता है किन्तु टिकता कुछ भी नहीं, सब कुछ चला जाता है। वह व्यक्ति सूखी भींत का जीवन जीता है कि जिस पर बालू फेंकी, सूखी बालू आयी और नीचे गिर गई । कोई लेप नहीं होगा । ऐसा जीवन जी सकता है । अपनी खोज I जो व्यक्ति समाधि का चुनाव करता है, उसे अपनी खोज करनी जरूरी है । अपनी खोज किए बिना कोई समाधि को उपलब्ध नहीं हो सकता । अपनी खोज है- 'मैं चेतन हूं। मैं अचेतन नहीं हूं।' खोज बहुत सीधी है। अपनी खोज के लिए आपको दूर जाने की जरूरत नहीं । मुझमें चैतन्य है, आनन्द है और शक्ति है। मैं चैतन्यमय हूं, मैं आनन्दमय हूं और मैं शक्तिमय हूं । आनन्द, चैतन्य और शक्ति - यह त्रिपुटी मेरा स्वभाव है । बस, इसके सिवाय मेरा कोई स्वभाव नहीं है । जो इन तीन को जान लेता है, वह अपने आपको जान लेता है, सब कुछ जान लेता है । अचेतन में चैतन्य नहीं है, आनन्द नहीं है । उसमें शक्ति है किन्तु स्वतन्त्रतायुक्त शक्ति नहीं है । स्वतंत्रता से जिसका प्रयोग किया जा सके वह शक्ति नहीं है । प्राणी में आनन्द, चैतन्य और स्वतन्त्रता से प्रयोग की जाने वाली शक्ति है । जिस प्राणी की अपनी विशेषता है वह उसका अपना अस्तित्व है । फिर प्रश्न होगा कि चैतन्य है, पर यह आवरण क्यों ? चैतन्य है, मैं जान सकता हूं। कुछ जानता हूं सामने बैठे लोगों को जानता हूं । भींत से परे नहीं जानता । यह पुस्तक है, टेप रिकार्डर है, माइक है, आदमी बैठे हैं, मैं जानता हूं, किन्तु हाल में असंख्य परमाणु चक्कर लगा रहे हैं, इस हॉल का कोई भी भाग ऐसा नहीं कि जिसमें परमाणुओं का अंबार न लगा हो, इसे मैं नहीं जानता । आवरण : कारण और निवारण चैतन्य है तो यह आवरण क्यों? कुछ जानता हूं, कुछ नहीं जानता । व्यवहित को नहीं जानता -बीच में पर्दा आ गया, भींत आ गई, नहीं जानता । सूक्ष्म को नहीं जानता और दूर को नहीं जानता । दूर को नहीं देख सकता। आंख की रेंज में जो है उसे देख लेता हूं। जो परे है उसे नहीं देख पाता । इन्द्रियज्ञान की सीमा, मन की सीमा, चित्त की सीमा, बुद्धि की सीमा - सब की सीमाएं For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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