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________________ अपनी खोज १८६ है। मनुष्य में सबसे अधिक स्वतंत्रता विकसित होती है। वह चाहे तो बीमार हो सकता है, व्याधिग्रस्त हो सकता है, चाहे तो आधिग्रस्त हो सकता है-मानसिक उलझनों में भर सकता है और चाहे तो उपाधि का जीवन जी सकता है-क्रोध, अभिमान, माया और लालच का जीवन जी सकता है। वह चाहे तो समाधि का जीवन जी सकता है। यह चुनाव करने की क्षमता केवल मनुष्य में है। मार्ग दो : चुनाव का स्वातन्त्र्य __ मनुष्य की स्वतंत्रता इतनी विकसित होती है, इतनी जाग्रत होती है कि वह अपने मार्ग का चुनाव कर सकता है। मुझे कौन-सा जीवन जीना है? व्याधि, आधि और उपाधि का जीवन जीना है या समाधि का जीवन जीना है? आप पूछना चाहेंगे, यह कोई चुनाव का प्रश्न है? क्या कोई व्यक्ति व्याधि का जीवन जीना चाहेगा? रोगी होकर जीना चाहेगा? क्या कोई व्यक्ति आधि का जीवन जीना चाहेगा? उपाधि का जीवन जीना चाहेगा? प्रश्न हो सकता है। सहज लगता है प्रश्न। किन्तु उत्तर भी जटिल नहीं है, बहुत सीधा है। आदमी चाहता है तब बीमार होता है। आदमी चाहता है तब मानसिक उलझनों में फंसता है और चाहता है तब उपाधि से ग्रस्त होता है। अगर वह न चाहे तो कभी बीमार नहीं हो सकता, कभी आधिग्रस्त और उपाधिग्रस्त नहीं हो सकता। यह सब चाह पर निर्भर होता है। कठिन है उस चाह को पकड़ना, कठिन है उस चाह को समझना और देखना। हम देखना नहीं जानते। हमारे भीतर बीमार होने की चाह जागती है और हम बीमार हो जाते हैं। बिना चाह बीमार कोई नहीं हो सकता। मन में चाह जागती है, बीमार हो जाता है आदमी। क्या भोजन का असंयम, बहुत खाने की चाह और बीमारी दो बातें हैं? दो नहीं हैं? मन में ज्यादा खाने की चाह जागती है, क्या वह बीमारी की चाह नहीं है। मन में असंयम की चाह जागती है, क्या वह बीमारी नहीं है? अति काम, अति भोजन, अति लोभ, अतिक्रोध करता है, यह सारी बीमारी की चाह है। हम कैसे भेद-रेखा खीचेंगे कि अति भोजन की चाह, अति स्वाद की चाह, अति लोलुपता की चाह तो है और बीमारी की चाह नहीं है। यह नहीं हो सकता। केवल शब्द दो हैं, अर्थ में कोई भेद नहीं है। अति भोजन की चाह का मतलब है, रोगी होने की चाह। जीभ की लोलुपता की चाह का मतलब है, रोगी होने की चाह । असंयम की चाह का मतलब है, बीमार होने की चाह । हम इन्हें अलग नहीं कर सकते, कभी नहीं कर सकते। कोई आदमी आग में हाथ डाले और कहे-मैं हाथ जलाना नहीं चाहता। क्या ऐसा हो सकता है? अगर उसे हाथ को जलाने की चाह नहीं है, तो वह हाथ को कभी आग में नहीं डालेगा। बहुत स्पष्ट है कि आदमी का आग में हाथ डालने का मतलब है हाथ जलाना। वह इसमें कोई भेद-रेखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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