SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि और प्रज्ञा १७३ आदमी पर कुछ भी अनुशासन करना चाहता है और सामने वाले को लगता है, मेरे अहं पर चोट हो रही है। तत्काल झगड़े शुरू हो जाते हैं। लौकिक चेतना में अनुशासन वाली बात समझ में नहीं आती। विवशता तो होती है, अनुशासन नहीं होता। जहां बाध्यता होती है, विवशता होती है, आदमी बोलता नहीं पर मन-ही-मन कितनी भयंकर आग जल जाती है और जब मौका मिलता है तो कितना भयंकर प्रतिशोध लेता है, यह सब जानते हैं। समय आने पर प्राण लेने के लिए भी तैयार हो जाता है । लौकिक चेतना में अनुशासन की बात भी नहीं होती और लौकिक चेतना में ज्ञान भी बहुत लाभदायी नहीं होता। कहा जाता है-विद्या ददाति विनयम् । पर लौकिक चेतना में विद्या विनय कैसे देगी? नहीं दे सकती। जब हमारी चेतना लौकिक है तो ज्ञान का उद्देश्य होगा केवल कौशल प्राप्त करना । और वह कौशल कि जिससे अधिक-से-अधिक कुछ बटोरा जा सके, इकट्ठा किया जा सके। लौकिक चेतना रहती है, तब तक यह तप और आचार भी बहुत लाभदायी नहीं बनता। जितना बनाना चाहिए, उतना लाभप्रद नहीं बनता । बहुत सारी तपस्याएं भी की जाती हैं। यदि उनके साथ लौकिक चेतना जुड़ गई तो कहीं प्रतिष्ठा की भावना आ जाती है, कहीं सम्मान की भावना आ जाती है, कहीं कुछ धन पाने की भावना भी आ जाती है । और भी न जाने कितनी लौकिक भावनाएं जुड़ जाती हैं । आचार के साथ भी जुड़ जाती हैं। कोई आदमी प्रतिष्ठा पाले कि “बड़ा सच्चरित्र है, " बस, प्रतिष्ठा से ही उसे इतना संतोष हो जाता है और लगता है कि इस साख से भी मुझे बहुत कुछ मिलेगा। जब तक लौकिक चेतना रहती है, तब तक इनमें परिवर्तन नहीं हो सकता । समाधि की पहली घटना है अलौकिक चेतना का निर्माण । चेतना अलौकिक बन जाती है। अनुशासन होता है । कष्ट नहीं होता, बिलकुल कष्ट नहीं होता, क्योकि अलौकिक चेतना तब जागती है जब अहंकार का विसर्जन होता है। जब व्यक्ति अहंकार को विसर्जित कर देता है, तब समाधि आती है, तब अलौकिक चेतना जागती है। और जब अहं ही भीतर नहीं है, फुफकारने वाला और काटने वाला ही भीतर नहीं है, फिर कोई कष्ट नहीं होता । अनुशासन कितना ही हो, कोई कष्ट नहीं होता । आचार्य भिक्षु ने अपने पट्टधर शिष्य भारीमालजी से कहा - यदि तुम्हारी कोई भी शिकायत आयी तो तुम्हें एक तेला प्रायश्चित्त का करना होगा। तीन उपवास करने होंगे प्रायश्चित्त के रूप में । भला, छोटी-सी बात और इतना बड़ा प्रायश्चित्त । कैसे हो सकता है? लौकिक चेतना होती है, तत्काल अहं चोट करने लग जाता है ! क्या गुरु हैं । इतने निर्दयी ! इतनी छोटी बात के लिए इतना बड़ा प्रायश्चित्त ! क्या मैं कमजोर हूं? न जाने कितने विकल्प उठते हैं और व्यक्ति की चेतना कहां से कहां चली जाती है पर जब अहंकार नहीं रहा तब विकल्प कैसे उठ सकते हैं । भारीमालजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy