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________________ १९. समाधि और प्रज्ञा समाधि का अपना मूल्य है, परन्तु बहुत बार मूल्य को समझने के लिए दूसरे मूल्य का सहारा लेना होता है। एक वस्तु का मूल्य जब स्वयं समझ में नहीं आता तो व्यक्ति दूसरे के मूल्य का सहारा लेता है। समाधि अच्छी है। समाधिकाल में आनन्द का अनुभव होता है, इतने से ही आदमी को सन्तोष नहीं होता। वह जानना चाहता है, समाधि से क्या उपलब्धि होगी? उपलब्धि का प्रश्न हर प्रवृत्ति के साथ जुड़ा हुआ होता है। जिसकी उपलब्धि बड़ी होती है उसका मूल्य बहुत बढ़ जाता है। जिसकी उपलब्धि बड़ी नहीं होती, छोटी होती है, जिसका परिणाम बहुत बड़ा नहीं होता उसके लिए आकर्षण भी स्थायी या अधिक नहीं होता। आकर्षण स्थायी तब बनता है जब यह पता चले कि इसका परिणाम बहुत स्थायी होता है, बहुत ही सुखद होता है और इससे बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है। समाधि के सामने भी यही प्रश्न है। समाधि की साधना करने से क्या उपलब्ध होगा? क्या आदमी निकम्मा बन जायेगा? आलसी होकर, अकर्मण्य होकर बैठ जायेगा या कुछ करेगा? करेगा तो समाधि कैसे टिकेगी और समाधि होगी तो वह कैसे करेगा? कार्य और समाधि में जैसे भारी विरोध हो वैसा हमारी धारणा में समाया हुआ है। सब कुछ करता हुआ व्यक्ति समाधि में नहीं रह सकता। जैसे समाधि का और प्रवृत्ति का कोई जन्मजात विरोध हो। यदि समाधि मनष्य को अकर्मण्य बना दे, उसके हाथ ठिठुर जायें, पैर भी ठिठुर जायें, कुछ न कर सके, समाधि जड़ बना दे, तो उस समाधि का उपयोग जो जड़ बनना चाहे उसके लिए हो सकता है। उस समाधि का मूल्य उस व्यक्ति के लिए हो सकता है जो अपनी शैया पर सोकर ही दिन काटना चाहे। उन लोगों के लिए वैसी समाधि का मूल्य नहीं होता जो जीवन को जीवन की भांति जीना चाहते हैं और प्रवृत्ति में रहते हुए जीना चाहते हैं, कुछ करते हुए जीना चाहते हैं, केवल निष्क्रिय और अकर्मण्य होकर बैठना नहीं चाहते। क्या समाधि से कर्मण्यता आती है? इस प्रश्न के विषय में जब तक हमारी धारणा स्पष्ट नहीं होगी, समाधि का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो सकेगा, जीवन में समाधि का अवतरण भी नहीं हो सकेगा और उसकी साधना भी नहीं हो सकेगी। समाधि की अवस्था : चित्रकार की अवस्था संस्कृत साहित्य में कुछ पहेलियों का प्रतिपादन हुआ है। एक पहेली है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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