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चित्त-समाधि के सूत्र ( २ ) १५६
घ्राण इन्द्रिय और जागती है । चार इन्द्रियों का विकास होता है उनमें चक्षु इन्द्रिय और जागती है पांच इन्द्रियों का विकास होता है तब शब्द- चेतना जागती है । यह है इन्द्रियों का विकास क्रम । किन्तु साधना की दृष्टि में इससे ठीक उल्टा होता है। क्योंकि मनुष्य को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं - शब्द और रूप । इसलिए ध्यान करने वाले व्यक्ति को शब्दों से बचना होता है और रूपों से बचना होता है ।
जंगल में खड़े थे पेड़ के नीचे । राजा श्रेणिक अपनी सेना के साथ-साथ भगवान् महावीर के पास जा रहा था। आगे-आगे कुछ कर्मचारी चल रहे थे । एक व्यक्ति जो सबसे आगे चल रहा था, देखा, मुनि ध्यान करके खड़ा है । चलते-चलते उसने एक ढेला फेंक दिया। बोला- 'ध्यान करके खड़े हो । राज्य
छोड़ आये, पता नहीं पीछे क्या हो रहा है । शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया । लड़का बेचारा छोटा है, पिसा जा रहा है। राज्य जा रहा है, क्या हुआ राज्य को छोड़कर खड़े हो गये ?' कुछ कठोर शब्द कहे। एक ओर मुनि ध्यान में लीन थे, चैतन्य के अनुभव में लीन थे, किन्तु जैसे ही शब्द कानों में घुसे, उनका ध्यान छूट गया और वे शब्दों में उलझ गये। सोचा, मेरे राज्य पर आक्रमण किया है। अभी मैं जाता हूं और पूरी सेना की शक्ति के साथ शत्रु पर आक्रमण करता हूं। देखता हूं, कैसे वह मेरे राज्य को लूटता है ? ऐसी स्थिति में चले गये, ध्यान तो छूट गया, युद्ध का ध्यान लगा रहा। आत्मा का ध्यान छूट गया, युद्ध का ध्यान सारे मस्तिष्क में चक्कर काटने लगा ।
शब्द बहुत प्रभावित करते हैं। इसलिए ध्यान की साधना करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले शब्द पर विजय पाने की जरूरत होती है । शब्दों को न सुनें और यदि सुनें तो उनके अर्थ पर चिन्तन न करें। ध्यान न दें। कानों में पड़ा और गया । लगता है जैसे शब्दों का काम कान में आना है और उस पर ध्यान न देना ध्यान करने वाले का काम है। ध्यान में यह स्थिति नहीं बनती कि शब्द कानों में न आएं और हमारे मस्तिष्क को झंकृत न करें । शब्द सुनाई देता है और मस्तिष्क झंकृत होता है । किन्तु जब तन्मयता की स्थिति बनती है, एकाग्रता प्रगाढ़ होती है, घनीभूत होती है, फिर शब्द सुनाई भी नहीं देता । समाधि की अवस्था में जो चला जाता है, कितना ही शब्द हो, उसे कोई पता ही नहीं चलता कि कुछ हो रहा है। चाहे नगाड़ा बजा दिया जाये, चाहे जेट विमान कानों के पास से गुजर जाये, कोई फर्क नहीं पड़ता । कितना ही भयंकर शब्द हो जाये, समाधि की चेतना में पहुंचने के बाद हमारे सारे संवेदन- केन्द्र, इन्द्रियों के संवेदन- केन्द्र और मन के संवेदन- केन्द्र सब निष्क्रिय बन जाते हैं । कोई भी शब्द सुनाई नहीं देता, न बाहर का शब्द सुनाई देता है और न भीतर का शब्द सुनाई देता है। दोनों समाप्त हो जाते हैं । इसीलिए इस अवस्था को कहा गया
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