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१८. चित्त-समाधि के सूत्र (२)
अध्यात्म साधना के क्षेत्र में दो शब्द बहुचर्चित हैं। एक है ध्यान और दूसरा है समाधि । कुछ आचार्यों ने केवल ध्यान शब्द के द्वारा समूची साधना को प्रस्तुत किया है और कुछ आचार्यों ने केवल समाधि शब्द के द्वारा समूची साधना का प्रतिपादन किया है। कुछ आचार्यों ने ध्यान और समाधि दोनों का प्रतिपादन किया है। हमारे सामने प्रश्न होता है-क्या ध्यान और समाधि एक हैं या दोनों में अन्तर है? यदि अन्तर है तो वह क्या है? कोई अन्तर नहीं होता। समाधि के साथ ध्यान स्वयं आ जाता है और ध्यान में समाधि स्वयं आ जाती है। भीतर मे जागने का जितना प्रयत्न है वह सारा का सारा समाधि है। जब-जब आदमी भीतर में जागता है, जब-जब वह चैतन्य का अनुभव करता है, और जिस बिंदु से जागना शुरू करता है, उस बिन्दु से लेकर चरम बिन्दु तक पहुंचता है, वह सारा का सारा समाधि है। भीतर में जागना ध्यान और भीतर में जागना समाधि। कोई अन्तर नहीं होता। किंतु जब दोनों शब्द हमारे सामने आते हैं तो अन्तर जानने की जिज्ञासा भी मन में जाग जाती है। सहज ही प्रश्न होता है-ध्यान और समाधि में भेद-रेखा क्या है? अनेक आचार्यों ने भेद-रेखा भी खींची है। समनस्कता ध्यान की स्थिति है। ध्यान में मनुष्य समनस्क और सेन्द्रिय रहता है। ध्यान में मनुष्य अमन नहीं होता, अमनस्कता नहीं आती और इन्द्रियां भी बिलकुल निष्क्रिय नहीं बनती। समाधि की अवस्था आती है, मनुष्य अमनस्क
और अनिन्द्रिय बन जाता है। समाधि है तीसरी अवस्था
इन्द्रिय की एक अवस्था है वनस्पति जीवों में, जिस अवस्था में इन्द्रियों का पूरा विकास नहीं होता। अमनस्कता की एक अवस्था है वनस्पति जीवों में, जिस अवस्था में उन जीवों के मन का पूरा विकास नहीं होता। प्रश्न होता है-क्या ध्यान करने वाला, समाधि में जाने वाला अनिन्द्रिय और अमनस्कता
की स्थिति में चला जाये? फिर वनस्पति जगत् में चला जाये और उसका जो विकास हुआ है वह और कम हो जाये? यदि ऐसा हो तो फिर हमें समाधि की कोई आवश्यकता नहीं है। हमने वनस्पति से विकास किया। विकास करते-करते पांच इन्द्रियां और मन की स्थिति तक हम पहुंचे। यदि हम समाधि के द्वारा फिर अनिन्द्रिय और अमनस्क की स्थिति में चले जाएं, इन्द्रियां निष्क्रिय बन जाएं, हमारा मन समाप्त हो जाए और वनस्पति में लौट जाएं तो समाधि
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