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१५६ अप्पाणं सरणं गच्छामि
निकलना चाहता था, उसे अन्दर ही रोक दिया। जो दूसरों को देखना जानता है वह नहीं चाहता कि दूसरे भीतर अड्डे जमाए बैठे हैं वे बाहर निकल जायें। बीमारियां बाहर निकल जायें, आदमी नहीं चाहता, पागलपन बाहर निकल जाये, आदमी नहीं चाहता, विकृतियां बाहर निकल जाएं, आदमी नहीं चाहता। वह उन्हें भीतर रखने का प्रयत्न करता है। दवा ली, जो बाहर निकलना चाहता था विकार, फिर भीतर में सजीव हो गया। भीतर जाकर बैठ गया, जम गया। लगता है कि बड़ा आराम मिल गया। अरे, भले आदमी! जो घर को खाली करना चाहता था, जो ठग बाहर जाना चाहता था, पर तुमने चाहा कि नहीं, ठग बाहर क्यों जाये, उसे मेरे साथ ही रहना चाहिए। इस अर्थ में हम ठगे जा रहे हैं।
समाधि की सारी साधना, इस प्रवंचना को तोड़ने की साधना है, इस ठगाई को मिटाने की साधना है और इस मायाजाल को तोड़ने की साधना है। आदमी कभी ठगा न जाये। वह अपने आपको देखे, अपनी सम्पदा को देखे और अपने अस्तित्व को पहचाने। जिस दिन हम वैराग्य, समता, प्रसन्नता और प्रसन्नता से उपलब्ध होने वाले चैतन्य के अनुभव के प्रति एकाग्रता को साध लेंगे, सचमुच हम इस ठगाई के जाल से ऊपर उठ जायेंगे और एक निर्द्वन्द्व चेतना की भूमिका पर चले जायेंगे।
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