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चित्त-समाधि के सूत्र (१) १५५
बोला-“वहां पानी मिलता है, बड़ा ठंडा और निर्मल पानी है, आप पीकर आ जायें।" सेठ गया। ठग ने सोचा-अच्छा मौका मिला। सेठ का सारा सामान टटोला, कुछ भी नहीं मिला, तब उसने सोचा, हो सकता है साथ में ले गया हो। बड़ा धूर्त आदमी है यह भी। धूर्त आदमी दूसरे को धूर्त न माने तो अपनी धूर्तता भी समाप्त हो जाये, किन्तु दूसरे को धूर्त मानने पर अपनी धूर्तता को पनपने का मौका मिलता रहता है। सेठ पानी पीकर आ गया। बैठ गया। ठग पानी पीने गया। सेठ ने अपने हीरे उसकी पोटली से निकालकर अपने पास रख लिये। सेठ ने इतनी बुद्धिमत्ता से काम किया कि जहां पहुंचना था उस स्टेशन पर पहुंच गया। लक्ष्य सामने आ गया। सोचा, सुरक्षित पहुंच गया। सेठ ने कहा-“भाई साहब! बड़े सहयोगी रहे मेरी यात्रा में, बड़ा साथ निभाया, बड़ा सहयोग किया। मैं अपने घर जा रहा हूं। नमस्कार। आनन्द से रहना।" धूर्त आया, पैरों में गिर गया। बोला-“सेठ साहब, आपने मुझे नहीं पहचाना। मैं एक ठग हूं। बहुत बड़ा ठग हूं।" सेठ ने कहा-“बहुत पहले ही पहचान लिया।" तो फिर एक बात पूछना चाहता हूं। मुझे लगता है कि मैं तो ठग हूं और आप महाठग हैं। मैंने आज तक दुनिया को ठगा, और आपने मुझको भी ठग लिया। आपने कैसे ठगा, यह बात समझ में नहीं आयी। आपके पास इतना कीमती सामान और मैंने जब-जब सामान को खोला, देखा, पर कुछ भी नहीं मिला। मुझे लगता है कि आपने सचमुच मुझे ठग लिया। आप बता दें, आपका ठगने का गुर क्या है? आपकी कला क्या है?" सेठ ने कहा-“मेरी और कोई कला नहीं, सिर्फ एक ही कला थी कि जब तुम बाहर जाते, मैं अपना कीमती सामान तुम्हारी पोटली में बांध देता। तुम मेरे सामान को देखते, अपनी पोटली नहीं टटोलते। आदमी दूसरे को देखता है, अपने को कोई नहीं देखता।"
कितनी बड़ी मर्म की कहानी है कि हर आदमी दूसरे की खोज-खबर लेता है, दूसरे को टटोलता है। अपनी कोई खोज-खबर नहीं लेता। आत्मालोचन करें, आत्म-निरीक्षण करें, क्या हम उस ठग की भांति ठगे तो नहीं जा रहे हैं। ठग दूसरे को ठगता है, पर क्या हम स्वयं तो ठगे नहीं जा रहे हैं। हम केवल दूसरों-दूसरों को ही संभाल रहे हैं। कभी पदार्थ को संभालते हैं, कभी किसी आदमी को संभालते हैं। उलझन अपने मन की होती है और उसे दूसरों पर डाल देते हैं। उसने मेरा ऐसा कर लिया, इसलिए यह घटना हुई है। उसने मेरा यह कर दिया, उसने मेरा वह कर दिया। शायद ही आदमी स्वीकार करता है कि मैंने यह कर लिया। अपनी पोटली को कभी नहीं संभालता।
आज ही एक बहन आयी। ध्यान किया, शरीर अकड़ गया। रीढ़ में अकड़न आ गई, फिर उसने दवा ले ली। वह ठीक हो गई। ध्यान के द्वारा, समाधि की साधना के द्वारा जो विकृतियां बाहर निकलना चाहती थीं, जो उभार बाहर
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