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समाधि : साध्य या साधन १४१
अवस्था में जो साधन होता है वही दूसरी अवस्था में साध्य होता है। उपादान कर्म और कार्य दो नहीं होते। घड़ा बनता है मिट्टी का या बर्तन बनता है किसी धातु का। मिट्टी घड़े का उपादान है और घड़ा उसका कार्य है। अब यदि पूछा जाये कि मिट्टी घड़े का साधन है या साध्य है? वह साधन है जब तक मिट्टी के रूप में है। जब तक मिट्टी से घड़ा नहीं बना, तब तक मिट्टी घड़े का साधन है। मिट्टी में क्रिया हुई, परिणमन हुआ, मिट्टी घड़े में बदल गई, साध्य बन गया। जो साधन था वह साध्य बन गया, जो उपादान कारण था वह कार्य बन गया। बीज पेड़ का कारण भी होता है और बीज पेड़ का कार्य भी होता है। जब तक बीज बीज था, तब तक बीज पेड़ का कारण था। बीज बोया गया, सिंचन मिला, अंकुरित हुआ, पल्लवित हुआ, पौधा बना, पेड़ बना, बीज कार्य बन गया। कारण में और कार्य में कोई द्वैत नहीं होता, एकात्म होता है। वही बीज पेड़ बन जाता है। वही मिट्टी घड़ा बन जाती है। एकात्मकता होती है।
समाधि साधन भी है और समाधि साध्य भी है। जब समाधि बीज के रूप में होती है, बीज के रूप में कार्य करती है तब वह साधन होती है और जब वह प्रस्फुटित होती है, समाधि साध्य बन जाती है। समाधि का पहला बिन्दु है-विराग। विराग से समाधि शुरू होती है। शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के प्रति जितना विराग, उतनी समाधि। विराग का प्रारम्भ समाधि का प्रारम्भ। विराग बढ़ा, समाधि बढ़ी। वैराग्य का पहला बिन्दु समाधि का साधन है। वैराग्य के सारे मध्य-बिन्दु समाधि के साधन हैं और वैराग्य का चरम-बिन्दु समाधि है। प्रथम बिंदु पर समाधि साधन होती है और जब वह चरम-बिंदु पर पहुंचती है तब साध्य बन जाती है। समाधि स्वयं फलित हो जाती है, स्वयं वीतरागता बन जाती है और सब कुछ कृतकृत्य हो जाता है। समाधि के चरम बिंदु पर पहुंचने पर साध्य शेष नहीं रहता। कुछ करना शेष नहीं रहता। सब अपने आप घटित हो जाता है। हम चरम-बिंदु की बात छोड़ दें। साध्य की बात छोड़ दें। साध्य तो हमारे सामने रहेगा। वह हमारी दिशा का नियामक रहेगा। साध्य हमेशा नियामक होता है। जब साध्य सामने होता है, व्यक्ति ठीक उसी दिशा में प्रस्थान करता है। आगे चलता चला जाता है। साधन की यात्रा ___ हमें साधनरूप समाधि की यात्रा करनी है। जो समाधि साधन है, हमारे काम की आज वही है। हम साधन की यात्रा करें। ध्यान-साधना का प्रयोजन है-समाधि की यात्रा, साधन की यात्रा। हम यात्रा शुरू करें वैराग्य के साथ। जितना वैराग्य होता है उतना ही हमारा अनुभव स्पष्ट होता है। वैराग्य अनेक चीजों का करने की जरूरत नहीं। त्याग की बहुत लम्बी तालिका बनाने की जरूरत नहीं होती। केवल पांच ही तो है हमारे सामने। पांच के अतिरिक्त और
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