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________________ १३२ अप्पाणं सरणं गच्छामि प्रधानमंत्री का पुत्र है, ऐश्वर्यशाली है, इसलिए उसकी प्रशंसा हो गई। मेरी प्रशंसा कौन करे? उसके मन में ईर्ष्या का भाव जाग गया। वह आचार्य के पास आकर बोला-अब मैं वेश्या के घर चातुर्मास करूंगा। आचार्य ने समझाया। वह नहीं माना। वेश्या के घर जाकर रहा। कुछ दिनों तक निमित्तों से बचता रहा। उसमें आन्तरिक परिवर्तन पूर्ण रूप से घटित नहीं हुआ था। एक दिन ऐसा आया कि वह वेश्या के मायाजाल में फंस गया। श्रामण्य से च्युत हो गया। लम्बी कहानी है। केवल निमित्तों से बचना पर्याप्त नहीं होता। दोनों ओर से बचना होता है। बाहर के निमित्तों से भी यथासंभव बचना चाहिए और आन्तरिक ग्रन्थियों के स्राव को भी बदलना चाहिए। कर्म का विपाक ग्रन्थियों के माध्यम से होता है। उसे भी बदलना चाहिए। हम अब इसे शरीरशास्त्रीय और मानसशास्त्रीय व्याख्या के संदर्भ में समझें। हमारा यह शरीर स्थूल है। इससे आगे है सूक्ष्म शरीर और उससे आगे है अति सूक्ष्म शरीर। जैन दर्शन की शब्दावली में स्थूल शरीर को औदारिक शरीर, सूक्ष्म शरीर को तैजस शरीर और अति सूक्ष्म शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं। हमारे भावों पर नियंत्रण करता है यह तैजस शरीर और तैजस शरीर पर नियंत्रण करता है कर्म शरीर। तैजस शरीर मस्तिष्क के एक भाग ‘हाइपोथेलेमस' पर नियंत्रण करता है। हमारे शरीर का तापमान, चयापचय की प्रक्रिया (मेटाबोलिज्म)-यह सब तैजस शरीर द्वारा नियंत्रित होता है। शरीर में भूख, नींद आदि के जो नियंत्रण केन्द्र हैं वे सारे मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस भाग में हैं। तैजस शरीर का नियंत्रण होता है इस स्वायत्त-तंत्रिका तंत्र पर। इस तंत्र का नियंत्रण होता है ग्रन्थि-संस्थान पर। एक पूरी श्रृंखला जुड़ी हुई है। आन्तरिक स्रावों को बदलने के लिए, भीतरी परिवर्तन के लिए पूरी प्रक्रिया चलती है। जब लेश्या बदलती है तब परिवर्तन घटित होता है। जब मन में तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के भाव आते हैं तब तैजस शरीर से स्राव होता है और वह हमारी ग्रन्थियों में आता है। ग्रन्थियों के दो प्रकार है-अन्तःस्रावी ग्रन्थियां और बहिस्रावी ग्रन्थियां । लीवर बहिस्रावी ग्रन्थि है। उसका स्राव है पित्त । वह बाहर निकलता है। वह भोजन के साथ मिलकर पाचन में सहयोग देता है। चक्र अन्तःस्रावी ग्रन्थियां हैं। ध्यान के द्वारा वे सक्रिय होती हैं। उनका स्राव शरीर से बाहर नहीं जाता। वह सीधा रक्त के साथ मिल जाता है और अपना प्रभाव डालता है। इन अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के रस हमारे समूचे स्वभाव को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति चिड़चिड़ा होगा या प्रसन्न, व्यक्ति क्रोधी होगा या शान्त, व्यक्ति ईर्ष्यालु होगा या उदार-यह सारा इन ग्रन्थियों के विभिन्न स्रावों पर निर्भर है। जैसा स्राव होगा वैसा ही स्वभाव निर्मित हो जाएगा। इन स्रावों को बदले बिना संवेगों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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