SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संयम और समाधि १३१ यह असंभव-सा लगता है। किन्तु शरीरशास्त्रीय और मानसशास्त्रीय अध्ययन के संदर्भ में लगता है कि बहुत बड़े सत्य की उद्घोषणा है-आत्मप्रतिष्ठित क्रोध। बाहर का कोई निमित्त नहीं, कोई हेतु नहीं, किन्तु ग्रन्थियों का स्राव बदल गया, एड्रीनल की मात्रा बढ़ गई और आदमी बहुत गुस्से से भर गया। बिना किसी निमित्त या कारण के मनुष्य दुःखं, चिन्ता, घृणा, ईर्ष्या से भर जाता है। कारण होने पर कोई ईर्ष्या या घृणा करता है, वह बात छिपी नहीं रहती। परन्तु बिना कारण ईर्ष्या, घृणा करना कुछ अटपटा-सा लगता है। सदा प्रसन्न और सुखी रहने वाला आदमी भी निमित्त या उद्दीपन मिलने पर दुःखी रहने लग जाता है। निमित्तों से आदमी सुखी होता है, निमित्तों से आदमी दुःखी होता है। निमित्तों के आधार पर उसके भाव बदलते हैं। कभी वह दुःखी हो जाता है और कभी वह सुखी बन जाता है। कभी वह ईर्ष्या से भर जाता है और कभी वह घृणा से भर जाता है। फिर समाधि की बात कैसे की जाए? ये सारी घटनाएं असमाधि में डालने वाली हैं, मन को अशान्त बनाने वाली हैं। निमित्तों से बचो : भीतरी स्त्राव बदलो निमित्तों और उद्दीपनों से बचना समाधि के लिए पर्याप्त नहीं है। निमित्तों से और उद्दीपनों से बचना बहुत अच्छी बात है, परन्तु इस बचाव से समाधि घटित नहीं होती। इससे व्यवहार सुखद बनता है, और भी अनेक लाभ हो सकते हैं, परन्तु समाधि को घटित करने के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। इनसे कहां तक बचा जाए? समाधि घटित होती है भीतरी परिवर्तन होने पर। चूहा निमित्तों से कितना ही बचे, किन्तु जिस क्षण बिल्ली सामने आती है तब उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो जाता है। व्यक्ति दस वर्षों तक निमित्तों से बचता रहा। एक दिन निमित्त मिलते हैं और वह वैसा ही आचरण करने लग जाता है जैसे दस वर्ष पूर्व करता था। निमित्तों से बचना अच्छा है, पर पर्याप्त नहीं। ब्रह्मचारी से कहा गया-वह निमित्तों से बचे। स्त्री का संसर्ग न करे; शब्द, रूप, रस और गंध से बचे; प्रिय भोजन और कुतूहल से बचे। एक पूरी सूची है निमित्तों से बचने की। वह निमित्तों से बचता रहा। किन्तु भीतरी परिवर्तन घटित नहीं हुआ। परिवर्तन का प्रयत्न ही नहीं किया। प्रसंग आया। तीव्र निमित्त मिला और वह वर्षों से बचने वाला फिसल गया। निमित्तों से बचने की बात समाप्त हो गई। वह ठीक उसी परिस्थिति में चला.गया, जिसमें वह पहले स्थित था। मुनि स्थूलभद्र वेश्या के यहां चार मास बिताकर आचार्य के पास आये। आचार्य ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक मुनि सिंह की गुफा पर चार मास बिताकर आये। आचार्य ने उनकी कोई प्रशंसा नहीं की। उन्होंने सोचा-यह क्या? इतना पक्षपात ! मेरा स्थान कितना भयंकर था और स्थूलभद्र का स्थान कितना मनोरम! फिर भी आचार्य ने स्थूलभद की प्रशंसा की, मेरी नहीं। स्थूलभद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy