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________________ १३० अप्पाणं सरणं गच्छामि घूमना, धूप से छांह में आना या छांह से धूप में जाना-ये सब प्रवृत्तियां इच्छा पर निर्भर करती हैं। आदमी चाहता है तो ये सब होती हैं, नहीं चाहता है तो ये कभी नहीं होतीं। ये ऐच्छिक प्रवृत्तियां मस्तिष्क और मेरुदंड के द्वारा संचालित और नियंत्रित होती हैं। आन्तरिक अवयवों के कार्य, ग्रन्थियों का स्राव आदि सारे कार्य स्वायत्त तंत्रिका तंत्र से निष्पादित होते हैं। मेरुदंड के दोनों ओर सिम्पेथेटिक और पेरा-सिम्पेथेटिक-अनुकंपी और सहानुकंपी ये दो प्रकार की तंत्रिकाओं के गुच्छे होते हैं। वहां से स्वायत्त तंत्रिका तंत्र संचालित होता है। उसमें मस्तिष्क और मेरुदंड का विशेष उपयोग नहीं होता किन्तु संबंध अवश्य जुड़ा रहता है। परिवर्तन का मूल घटक : बायो-इलेक्ट्रिसिटी आदमी संवेदनों, विचारों और संवेगों पर नियंत्रण करना चाहता है किन्तु जब तक आन्तरिक क्रियाओं में कोई परिवर्तन नहीं आता, तब तक नियंत्रण संभव नहीं होता। व्यक्ति को संचालित करते हैं आन्तरिक रसायन, आन्तरिक विद्युत्-प्रवाह और आन्तरिक तंत्रिका तंत्र । जब तक हमारे रसायन न बदल जाएं, जब तक हमारी बॉडीकेमिस्ट्री में कोई परिवर्तन न आ जाए, बायो-इलेक्ट्रिसिटी में कोई परिवर्तन न आ जाए, तब तक कुछ भी परिवर्तन नहीं हो सकता। संवेगों का परिवर्तन तो हो ही नहीं सकता। आत्मप्रतिष्ठित क्रोध : एक सचाई एक आदमी प्रसन्न रहता है और दूसरा खिन्न रहता है। एक निश्चित है और दूसरा चिन्ताओं के भार से आक्रान्त है। इन वृत्तियों का मूल कारण है भीतरी रसायन । वे जैसे होते हैं आदमी वैसा ही बन जाता है। योग की भाषा में ग्रन्थियों को चक्र और प्रेक्षा-ध्यान की भाषा में उन्हें चैतन्य-केन्द्र कहा जाता है। जब तक इन ग्रन्थियों के स्राव नहीं बदलते, समाधि निष्पन्न नहीं होती। क्रोध क्यों आता है? वह केवल उद्दीपनों, निमित्तों या बाहरी घटनाओं के कारण नहीं आता। हजार प्रतिकूल घटनाओं के होने पर भी एक व्यक्ति को गुस्सा नहीं आता और एक व्यक्ति साधारण-सी घटना घटित होने पर क्रोध कर लेता है। यह क्यों? कोई उद्दीपन नहीं, कोई निमित्त नहीं, फिर क्रोध क्यों? स्थानांग सूत्र में क्रोधोत्पत्ति के चार कारण माने गये हैं- १. आत्मप्रतिष्ठित २. परप्रतिष्ठित ३. तदुभयप्रतिष्ठित ४. अप्रतिष्ठित। __इनमें तीन कारण (२, ३, ४) स्पष्ट हैं, हर व्यक्ति के सामने आते हैं। चौथा कारण बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह है 'आयपयट्ठिएकोहे' - आत्म-प्रतिष्ठित क्रोध। यह वह क्रोध है जिसका कोई भी बाहरी कारण नहीं है। वह भीतर में उत्पन्न होता है और बाहर प्रकट हो जाता है। यह तथ्य सहजगम्य नहीं है। बिना निमित्त के क्रोध कैसे उत्पन्न होता है? बिना उद्दीपन के क्रोध कैसे उत्पन्न होता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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