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समाधि के सोपान १२१
होता है तो रिएक्शन होता है। जितनी प्रतिवर्तित क्रियाएं होती हैं, ये सारी गहरी छाप के कारण होती हैं। आदमी बाजार से गुजरता है। हजारों दृश्य देखता है। हजारों वस्तुएं देखता है। किन्तु सारी वस्तुओं की स्मृति उसे नहीं होती। वह कुछेक वस्तुओं के ही नाम गिना पाता है। जिन वस्तुओं पर उसने गहरा ध्यान दिया है, जिन वस्तुओं ने उसे गहरा प्रभावित किया है, उस पर गहरी छाप छोड़ी है, वे स्मृति-कोष्ठों में अंकित हो जाते हैं, शेष सारे दृश्य या वस्तुएं आंखों के सामने आयीं और चली गईं। ___ तर्कशास्त्र में प्रमाण के तीन दोष माने गए हैं-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय । संशय होता है तो ज्ञान प्रमाण नहीं होता। विपर्यय ज्ञान भी प्रमाण नहीं माना जाता। रण में पानी दीखता है, पर पास जाने पर कुछ भी नहीं। यह मृग-मरीचिका विपर्यय है। यह ज्ञान प्रमाण नहीं होता। अनध्यवसाय भी प्रमाण नहीं होता। अध्यवसाय ही प्रमाण होता है। अनध्यवसाय में सामने आने वाली वस्तु अपना गहरा प्रतिबिम्ब नहीं डालती, गहरी छाप नहीं डालती। जिसकी छाप गहरी नहीं होती, उसकी स्मृति भी नहीं हो सकती। ____ अध्यात्म की भाषा में कहा गया है कि जिसका संवेदन तीव्र नहीं होता उससे नया कर्मबंध नहीं होता। जब कर्मबंध नहीं होता तो उसका विपाक भी नहीं होता। उसको भुगतना नहीं पड़ता।
यही बात शरीरशास्त्र और मानसशास्त्र में प्राप्त होती है। तथ्यों में कोई अन्तर नहीं है, केवल भाषा का अन्तर है। अध्यात्म कर्मशास्त्र की भाषा में बोलता है और यह शरीरशास्त्रीय, मानसशास्त्रीय भाषा है।
सचाई यह है कि क्रिया की गहरी छाप तब पड़ती है जब संवेदन तीव्र होता है। आदमी कर्म को सर्वथा नहीं छोड़ सकता। पर यह संभव है कि कर्म चले पर उसकी छाप न पड़े। जब ऐसा होता है तब समाधि का पहला सोपान प्राप्त हो जाता है। यही असमाधि पर पहला प्रहार है। प्रियता और अप्रियता के संवेदन पर नियंत्रण पाना-यह असमाधि की सघनता को मिटाने का पहला प्रयत्न है। प्रियता और अप्रियता को सर्वथा छोड़ देना असंभव कार्य है। क्योंकि इतना दीर्घकालीन संस्कार जिसे शरीर प्रभावित करता है, इन्द्रियां प्रभावित करती हैं, सभी बाह्य उद्दीपन प्रभावित करते हैं, उस चक्र को सहसा कैसे तोड़ा जा सकता है? किन्तु कभी कोई एक ऐसी घटना घटित होती है और वह बात फलित हो जाती है। हम ध्यान, कायोत्सर्ग और शरीर-प्रेक्षा का अभ्यास इसीलिए करते हैं कि कोई ऐसी घटना घटित हो जाए जिससे शरीर से भिन्न अपने चैतन्य का बोध हो जाए, उसकी झलक मिल जाए। शरीर को देखते-देखते प्राण का प्रवाह पकड़ में आ जए। प्राण के प्रवाह को देखते-देखते सूक्ष्म शरीर के प्रकंपन पकड़ में आ जाएं और उनसे आगे सूक्ष्मतम शरीर-कर्म शरीर के प्रकंपन अनुभव
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