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समाधि के सोपान ११६
हो या अप्रियता का हो। संवेदन को कम करना बहुत कठिन होता है। आदमी प्रियता को भी नहीं छोड़ सकता और अप्रियता को भी नहीं छोड़ सकता। संवेदन को छोड़ना अच्छा है। अच्छा होना एक बात है और उस तक पहुंच पाना दूसरी बात है। आदर्श और लक्ष्य ऊंचे होते हैं। आदमी सदा ऊंचा आदर्श बनाता है। अच्छा साध्य निश्चित करता है, किन्तु उस तक पहुंच नहीं पाता। लक्ष्य तक पहुंचना सहज-सरल मार्ग नहीं है। उसमें सतत अभ्यास, निरंतरता और दृढ़ अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। यदि आदमी लक्ष्य की ओर एक पैर उठाते ही लक्ष्य तक पहुंच जाता तो आज कुछ भी असंभव नहीं रहता, सब कुछ संपादित कर दिया जाता। परंतु ऐसा कभी नहीं होता। लक्ष्य तक पहुंचने में मार्गगत अनेक बाधाएं, अनेक प्रतिरोध और खतरे आते हैं। उनको पार करना हर साधक के लिए सरल नहीं होता। समाधि और मन की शांति अच्छी है। उसे प्राप्त करना चाहिए। यह प्रत्येक मनुष्य चाहता है। पर वह उसे प्राप्त नहीं कर पाता। अनेक रुकावटें आ जाती हैं। उसके सामने यह प्रश्न बना रहता है कि उन रुकावटों का पार कैसे पाया जाए? उनकी सीमाओं का अतिक्रमण कैसे किया जाए?
असमाधि का मूल कारण है-प्रियता और अप्रियता का संवेदन। संवेदन जितना तीव्र होता है असमाधि भी उतनी ही तीव्र होती है। समाधि की प्राप्ति के लिए हम इस संवेदन को कम करें। प्रियता और अप्रियता का संवेदन तब कम होता है जब आदमी को भीतर की झलक मिल जाती है। जब मनुष्य विषय के जगत् में जीता है, इन्द्रिय-संवेदनों को सुख मानता है तब तक उसे समाधि का अनुभव नहीं हो सकता। आदमी सदा प्रवृत्ति को देखता है, परिणाम को नहीं देखता। वह आपातभद्र होता है, परिणामभद्र नहीं होता। वह यही देखता है कि प्रवृत्ति का क्षण सुखदायक है या नहीं? प्रवृत्ति-काल में यदि प्रिय-संवेदन होता है तो वह उसे अच्छा मानता है। परिणाम उसका चाहे कितना भी अनिष्ट हो, आदमी उस ओर ध्यान नहीं देता। आदमी उसे अच्छा मानता है जो प्रवृत्ति-काल में अच्छा हो। आदमी उसे बुरा मानता है जो प्रवृत्ति-काल में बुरा हो। इन्द्रिय-संवेदन में सुख मानने वाले व्यक्ति को यदि कहा जाए कि इन संवेदनों के परे भी कोई सुख है, आनन्द है, तो उसे विश्वास ही नहीं होगा। उसे कहा जाए कि ऐसी भी प्रवृत्तियां हैं जो परिणामभद्र होती हैं, जिनका परिणाम सुखद होता है वह उसे स्वीकार तभी करेगा जब वे प्रवृत्तियां भी प्रवृत्ति-काल में सुख देने वाली हों। __मूल बात है, आदमी को भीतर का साक्षात् हुए बिना प्रियता और अप्रियता का संवेदन कम नहीं हो सकता। यह तीव्रता तब मिटती है जब कोई दूसरी झलक मिल जाती है। नया आकर्षण हुए बिना, पुराना आकर्षण मिट नहीं
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