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१४. समाधि के सोपान
गर्मी बहुत तेज है, अच्छी नहीं लगती। ठंडी हवा का एक झोंका आता है, मन उसके लिए तड़प उठता है। पंखा चलता है, मन को भाता है। बादल आता है, मन प्रसन्न हो जाता है। मनुष्य चाहता है बादल आए, धूप कम हो, गर्मी कम हो। वर्षा आ जाए, तब तो कहना ही क्या! आदमी गर्मी को नही चाहता। नहीं चाहना एक बात है, होना दूसरी बात है। होता है, आदमी उसे नहीं चाहता। दोनों के बीच पूरा सामंजस्य नहीं होता, कभी नहीं होता। यदि आदमी चाहे वही घटित हो तो यह दुनिया दुनिया नहीं रहेगी, कुछ और ही बन जाएगी। दुनिया की यह प्रकृति है कि जो चाहता है वह नहीं होता और जो नहीं चाहा जाता, वह हो जाता है। यह चाहने और होने के बीच जो दूरी है वही वास्तव में असमाधि है। असमाधि, दुःख और अशान्ति एक ही है। यही तो अशान्ति है कि आदमी जैसा चाहता है वैसा नहीं होता। यही तो असमाधि है कि आदमी चाहता कुछ है और होता कुछ है। यही दुःख है। जैसा चाहे वैसा हो जाए तो असमाधि और अशान्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर ध्यान-साधना की अपेक्षा समाप्त हो जाती है। समाधि के लिए लंबे प्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती। ___मनुष्य शान्ति चाहता है। वह समस्या का समाधान चाहता है, समाधि चाहता है। वह चाहता है कि समस्या न आए और यदि आए तो वह समाहित हो जाए। वह मूलतः समस्या को नहीं चाहता और आ जाए तो उसको असमाहित रखना नहीं चाहता। किन्तु समस्याएं आती भी हैं और समस्याओं का समाधान नहीं भी होता। जब समाधान दूर चला जाता है तब बेचैनी बढ़ती है। असमाधि इतनी बढ़ती है कि समाधि-प्राप्ति का प्रयत्न तीव्र हो जाता है। भावना और तड़प भी तीव्र हो जाती है।
मनुष्य समाधि को उपलब्ध होना चाहता है। परंतु प्रश्न है कि समाधि का प्रारंभ कहां से किया जाए? उसका पहला सोपान क्या है? कहां से आरोहण किया जाए? असमाधि से समाधि की ओर प्रस्थान करने का आदि-बिन्दु क्या
__ यह एक विमर्शनीय प्रश्न है। अध्यात्म के आचार्यों ने अपने अनुभव के आधार पर इस प्रश्न को समाहित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने कहा-समाधि का आदिबिन्दु है-संवेदन की तीव्रता को कम करना, संवेदन चाहे प्रियता का
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