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________________ प्रतिक्रिया से मुक्ति और समाधि ११७ पहले व्यक्ति की बात सुनकर प्रोफेसर प्रसन्नता से झूम उठा और दूसरे व्यक्ति की बात सुनकर वह विषण्ण हो गया। यह सारा खेल मन का है। एक घटना मन के अनुकूल थी तो प्रसन्नता का प्रवाह चल पड़ा। दूसरी घटना मन के प्रतिकूल थी तो विषण्णता का वातावरण बन गया। जब भोजन अच्छा बनता है तो पत्नी को सौ-सौ साधुवाद दिया जाता है। जब कभी भोजन स्वादिष्ट नहीं बनता या नहीं लगता तब परोसी हुई थाली को ठोकर भी मार दी जाती है। यह सारा मन का कार्य है। भोजन भोजन होता है। पदार्थ पदार्थ होता है। उसमें स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट का आरोपण हम करते हैं, मन करता है। हम इस सचाई को अच्छी तरह से जान लें कि इन्द्रियों का कार्य केवल विषयों को ग्रहण करना है। जब मन जुड़ता है तब प्रियता या अप्रियता की बात भी जुड़ जाती है। प्रियता या अप्रियता न पदार्थ में है और न इन्द्रियों में है। वह मन के द्वारा आरोपित की जाती है। मन की चंचलता ही इसका कारण है। जब किसी के साथ प्रियता जुड़ती है तो उसका परिणाम होता है अतृप्ति, क्योंकि प्रियता का भोग अतृप्ति को ही बढ़ाता है। दुःख का चक्र इस प्रियता के साथ ही प्रारंभ होता है। जब इन्द्रियों से पदार्थ का संयोग होता है तब संवेदन जन्म लेता है। संवेदन संवेदन तक सीमित रहे तो कोई दुःख नहीं होता। किन्तु संवेदन के साथ जब प्रियता या अप्रियता जुड़ती है तब दुःख का चक्र बनता है। एक सर्कल या वलयाकार चक्र होता है कि उससे बाहर निकलना हर किसी के लिए सरल नहीं होता। पदार्थ-भोग से अतृप्ति होती है। अतृप्ति लोभ को पैदा करती है। जब मन में लोभ जागता है तब चोरी की भावना जागती है जब चोरी की वृत्ति उभरती है तब मायामृषा-कपट और झूठ की वृत्तियां जागृत होती हैं। समाधि का जीवन जीने वाला इस दुःख के चक्रव्यूह को भेदने में सफल हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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