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________________ प्रतिक्रिया से मुक्ति और समाधि ११५ तरंगें ही सुख:-दुःख विज्ञान मानता है कि सुख-दुःख की अनुभूति विभिन्न प्रकार की तरंगों पर आधारित है। जब मस्तिष्क में अल्फा तरंगें उत्पन्न होती हैं तब सुख का अनुभव होता है। यह विज्ञान का सूत्र है। वह मानता है-पदार्थ के भोग में सुख नहीं होता। धन कमाने या खर्चने में सुख नहीं होता। आदमी को लगता है कि सुख मिल रहा है। विज्ञान इस कथन को यों ही स्वीकार नहीं करेगा। वह देखेगा कि आदमी के मस्तिष्क में किस घटना ने, किस परिस्थिति में कौन-सी तरंगें पैदा की हैं। उन सबके आधार पर वह कहेगा कि इस क्षण आदमी सुख का संवेदन कर रहा है और इस क्षण वह दुःख का संवेदन कर रहा है। जब व्यक्ति संयम, समाधि या ध्यान की स्थिति में होता है, जब उसकी एकाग्रता सघन बनती है तब उसके मस्तिष्क में अल्फा तरंगें लयबद्ध रूप में पैदा होनी शुरू हो जाती हैं। जब अल्फा तरंगें बढ़ती हैं तब व्यक्ति को इतने सुख का अनुभव होता है कि वह उसकी तुलना किसी पदार्थजन्य सुख से नहीं कर पाता। वह अनिर्वचनीय, अतुलनीय होता है। जब एकाग्रता की स्थिति टूटती है, अल्फा तरंगों की उत्पत्ति कम हो जाती है, उनकी लयबद्धता समाप्त हो जाती है तब बीटा, थीटा आदि तरंगें उभरती हैं और आदमी का मन अवसाद से भरने लग जाता है। मन में विषाद, चिन्ता, भय और बुरे विचार आते हैं और आदमी अत्यन्त दुःखी बन जाता है। हमारे भाव क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। दिन में न जाने कितनी बार आदमी के मन में अच्छे विचार आते हैं, कल्याणकारी संकल्प उभरते हैं और कितनी बार बुरे विचार आते हैं, अकल्याणकारी भावना उभरती है। कितनी बार उसके मन में हिंसा, घृणा, ईर्ष्या, वासना आदि के भाव जागते हैं और कितनी बार वह प्रेम, अहिंसा और मैत्री के विचारों से लबालब भर जाता है। ऐसा क्यों होता है? केवल बाह्य कारण ही इस परिवर्तन के हेतु नहीं हैं। वे केवल इन भावों को उद्दीप्त कर सकते हैं, किन्तु इन्हें उत्पन्न नहीं कर सकते। इनकी उत्पत्ति का स्रोत हमारे भीतर है। जब हमारे भीतर की क्रिया बदलती है, रसायन बदलते हैं, स्राव बदलते हैं और भीतरी विद्युत् का प्रवाह बदलता है, उनकी तरंगें बदलती हैं, तब ये सारे परिवर्तन घटित होते हैं। विभिन्न तरंगों के कारण ही ऐसा चक्र चलता रहता है। अध्यात्म की भाषा में इसे दुःख का चक्र और विज्ञान की भाषा में इसे तरंगों का चक्र कहा जाता है। जिस व्यक्ति के मस्तिष्क में बीटा, थीटा आदि तरंगें उत्पन्न होती रहती हैं, वह चाहे अरबपति हो या सारी सुख-सुविधाओं में झूलता हो, वह दुःख ही दुःख भोगता चला जाता दुःख-चक्र की उत्पत्ति की मीमांसा करते हुए समाधि के प्रसंग में भगवान् महावीर ने एक सुन्दर दर्शन दिया-जीभ रस का संवेदन करती है। यह उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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