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१३ प्रतिक्रिया से मुक्ति और समाधि
समाधि का आदि-बिन्दु है संयम और जीवन का सूत्र है सरसता । जब समाधि का प्रश्न आता है तब एक विकल्प उठता है कि संयम का रूखा जीवन जीएं या सरसता का जीवन जीएं? जब मनुष्य योनि मिली है, स्वस्थ शरीर, मस्तिष्क और स्वस्थ इन्द्रियां प्राप्त हैं तब सरस जीवन जीना समझदारी की बात है, रूख या नीरस जीवन जीना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती । नास्तिकों का यह सूत्र आनंददायी है - जीवन का स्वाद लेकर जीओ। खूब खाओ-पीओ और मौज करो । आस्तिक भी इस बात में पीछे नहीं हैं। वे संयम की बात दोहराते हैं किन्तु संयम का जीवन नहीं जीते। वहां जीवन का कोई अनुभव नहीं होता । जिसे अपने जीवन का अनुभव है, वह दोहराएगा नहीं । दोहराएगा वही जिसे अपना अनुभव नहीं है । तोता दोहराता है । जैसे रटाया वैसे ही दोहरा दिया । न कुछ जोड़ा और न कुछ तोड़ा। टेपरिकार्डर दोहराता है । उसमें जो आवाज भर दी, वैसे ही वह पुनः दोहरा देगा । जिस व्यक्ति को अपना थोड़ा-सा भी अनुभव है वह अनुभव करेगा, दोहराएगा नहीं ।
समाधि है चेतना की गहराई
समाधि की दो कठिनाइयां हैं । समाधि की चर्चा चेतना के सूक्ष्म स्तर पर की गई थी। वह चेतना की ऐसी भूमिका है जहां स्थूल दृष्टि या स्थूल जगत् से संबंध नहीं रहता । समाधि की चर्चा चेतना की गहराई में जाकर हुई थी, किन्तु सभी आदमी चेतना के उस स्थूल स्तर पर जी रहे हैं जिसका संबंध इस बाह्य जगत् के साथ और विषयों के साथ जुड़ा हुआ है। दोनों के दो भिन्न स्तर हैं । फिर सामंजस्य कैसे हो ?
समाधि की बात सुनने में अच्छी लगती है । मन की समाधि, चित्त की समाधि, मानसिक शान्ति, चैतसिक शान्ति - ये सब इसके फलित हैं । जी ललचाता है समाधि का जीवन जीने के लिए, क्योंकि इसमें सारे तनाव समाप्त हो जाते हैं, अशान्ति समाप्त हो जाती है । किन्तु जब व्यक्ति चेतन मन की भूमिका पर होता है तब उसका सम्पर्क बाह्य जगत् के साथ होता है और उसकी इन्द्रियां बाह्य विषयों को ग्रहण करने में सक्रिय होती हैं। सामने रूप आता है, रस और गंध आता है, शब्द आता है। आदमी इनमें उलझ जाता है और समाधि की बात बहुत पीछे रह जाती है। तब उसे लगने लगता है कि यह संसार ही सार है। इसमें जीवित रहना ही सरसता है। चेतन मन के स्तर पर शब्द, रूप,
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