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१०८ अप्पाणं सरण गच्छाम
ने मनुष्य के स्वभाव का जो वर्णन किया है वह मौलिक स्वभाव नहीं है । वह अर्जित स्वभाव है ! उसका रेचन करना होगा। शरीर की सीमा में पनपने वाले स्वभाव मूल स्वभाव नहीं है। उनका रेचन करना होगा। उनका रेचन होने पर ही मूल स्वभाव के साथ संपर्क स्थापित होगा । उस 'संपर्क' की स्थापना के लिए ‘पूरक' भी आवश्यक है । हम ध्यान की अवस्था में जाएं और पूरक करें । पूरक करते समय यह संकल्प करें - 'पवित्र और वीतराग आत्मा जिसका आनन्द अबाधित है, शक्ति पूर्ण जागृत है, शक्ति के स्रोत उद्घाटित हैं, जिसकी चेतना अनावृत हो चुकी है, चित्त को निर्मल करने वाली उस महाशक्ति को मैं श्वास के साथ भीतर ले जा रहा हूं और चेतना के कण-कण में उसे व्याप्त कर रहा हूं।' इस संकल्प के साथ पूरक करें। यह भी समाधि का सशक्त उपाय है। इसका अभ्यास पुष्ट होने पर यह अनुभव होगा कि नयी चेतना, नयी शक्ति और अजस्र आनन्द का प्रवाह प्रवाहित हो रहा है ।
हम रेचन और पूरक का अभ्यास भावना के साथ करें। हमारी आवृत शक्तियां अनावृत होंगी और समाधि का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा ।
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