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________________ समाधि : मानसिक समस्या का स्थायी समाधान ६५ तात्कालिक उपचार : स्थायी उपचार __मनोविज्ञान की भी एक कमी है। वह अब तक जितने उपचार सुझा पाया है, वे सारे तात्कालिक उपचार हैं, स्थायी एक भी नहीं है। कर्मशास्त्र स्थायी समाधान देता है। आवेगों का तात्कालिक उपचार करना कोई बुरी बात नहीं है, किन्तु वहां अटक जाना बुरा है। उसको पर्याप्त नहीं समझ लेना चाहिए। वहां से आगे प्रस्थान कर संवेगों को पूर्ण रूप से समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। तात्कालिक उपचारों से संवेग दबते हैं, निर्मूल नहीं होते। जब तक वृत्तियां, संज्ञाएं और संस्कार समाप्त नहीं होते, तब तक आवेग उत्पन्न होते ही रहते हैं। इस दुनिया में उद्दीपनों की कमी नहीं है। जैसे-जैसे उद्दीपन सामने आते हैं, संवेग जाग जाते हैं। उनका उपचार करते हैं। वे शांत होते हैं, फिर जाग जाते हैं। फिर उपचार करते हैं, शान्त होते हैं और फिर जाग जाते हैं। यह क्रम चलता रहता है। इस अनन्त अव्यवस्था का कहीं अन्त नहीं आता। इतना मान लेना ही पर्याप्त नहीं है कि हमारे भीतर सभी आवेगों के संवेदन-केन्द्र हैं। जब बाह्य उद्दीपनों से वे उत्तेजित होते हैं तब आवेग अभिव्यक्त होते हैं। हमें इससे आगे जाना चाहिए। आगे भी कुछ है। इसी बिन्दु पर मनोविज्ञान और कर्मशास्त्र में अन्तर आता है। यह सही है कि हमारे मस्तिष्क में आवेगों के संवेदन-केन्द्र हैं। उनको उद्दीप्त करने वाले कारण भी हैं, किन्तु इतना ही नहीं है। ये दोनों स्थूल तथ्य हैं। मूल बात है-संज्ञा, वृत्ति और संस्कार। महर्षि पतंजलि ने जिसे वृत्ति कहा, जैन आगमों ने जिसे संज्ञा कहा और नैयायिक आदि ने जिसे संस्कार कहा वे सारे वृत्तिकेन्द्र, संज्ञाकेन्द्र, संस्कारकेन्द्र हमारे भीतर अवश्य हैं, किन्तु वे स्थूल शरीर में नहीं हैं, सूक्ष्म शरीर में हैं, सूक्ष्मतम शरीर में हैं। जब तक ये केन्द्र क्षीण नहीं होते, उपशान्त नहीं होते, तब तक ये वृत्तियां जागती रहती हैं, कभी समाप्त नहीं होतीं। आदमी संवेगों का भार ढोता रहता है, दुःख पाता रहता है। हमें मूल को पकड़ना है, उस पर प्रहार करना है। मूल है प्रियता की अनुभूति। यह संवेगों का कारण है। जब तक प्रियता या रागात्मक अनुभूति समाप्त नहीं होगी, तब तक न शोक को मिटाया जा सकता है और न भय और न क्रोध को। मूल सुरक्षित है तो पत्ते और फल-फूल आते ही रहेंगे। उनको रोका नहीं जा सकता। प्रियता और अप्रियता दो नहीं हैं। प्रियता है इसीलिए अप्रियता होती है। प्रिय वस्तु में कोई बाधक बनता है तो अप्रियता की वृत्ति जाग जाती है। अप्रियता का मूल है प्रियता। अप्रियता का अपने आप में कोई अस्तित्व ही नहीं है। निषेध का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। जितने नगेटिव हैं वे पोजिटिव के कंधे पर चलते हैं। अस्तित्व के आधार पर नास्तित्व और विधि के आधार पर निषेध चलता है। वे पंगु हैं। अपने पैरों से कभी नहीं चलते। यदि अहिंसा न हो तो हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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