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भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण ७३
यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्यन्यापूरिताः प्रभो। विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः॥
(श्रीमद्भागवतमहापुराण, १०.४०.९-१०) स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया विभषि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः । सर्गाय रक्तं रजसोपबृहितं कृष्णं च वर्णे तमसा जनात्यये ॥
(श्रीमद्भागवतमहापुराण १०.३.२०) ईशावास्योपनिषद् का प्रथम मन्त्र ही इस तथ्य का आद्यस्थल है"ईशावास्यमिदम्' में ऋषि ईश्वर की सर्वव्यापकता एवं सर्वशक्तिमता का उद्घाटन किया है।
उपनिषदों में विवेचित परब्रह्म परमात्मा को ही भागवतकार ने श्रीकृष्ण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। या यों कहिए कि उपनिषद् का निर्गुण, निर्विकार अनन्त, सर्वव्यापक, इन्द्रियागोचर परमात्मा ही भक्ति का बाना पहनकर भागवत में सगुण-निर्गण उभयरूप श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुआ है। भागवतीय भक्तों ने अपने उपास्य के लिए कुछ ऐसे विशेषणों का प्रयोग किया है जो उपनिषद् से गहित प्रतीत होते हैं । निर्विकार (७.८.४०, १०.४०.१२), सर्वतन्त्रस्वतन्त्र (४.७.२६) इन्द्रियागोचर (४.९.१३) अनन्त (४.३०.३१), सर्वव्यापक (८.३.१८) योगीजनग्राह्य (८.३.२७), सर्वलोकातीत (१२.१२.६६) आदि परमात्मा के भागवतीय विशेषणों का प्रथम प्रयोग उपनिषदों में प्राप्त होता है।
अनन्त सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म-- तैत्तिरीयोपनिषद् २.१.१ अमर ----श्वेताश्वर ३.२१.५.२, तद्ब्रह्म तद्मृतं स आत्मा
छान्दयोग्योपनिषद् ८.१४.९, सर्वेश्वर--माण्डूक्य, सर्वव्यापी-मैत्रायणी ५.१, सर्वकारणस्थान, लयस्थान
तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१, २.६, श्वेताश्वर ४.१२ असंग-बृहदारण्यकोपनिषद् ४.२.४ । सर्वेश्वर-माण्डूक्य ६,७ यज्ञस्वरूप- मुण्डक २.१.६
इस प्रकार भागवतीय स्तुतियों पर औपनिषदिक प्रभाव भी परिलक्षित होता है।
रामायण, महाभारत हिन्दू संस्कृति के प्राण स्वरूप हैं। महर्षि वाल्मीकि और पराशरात्मज व्यास की ऋतम्भरीय प्रभा का चूडान्त निदर्शन हैं। रामायण में अनेक प्रकार की स्तुतियां हैं जिनका प्रभाव भागवतीय स्तुतियों पर दृष्टिगोचर होता है। भागवतीय सामूहिक स्तुतियों का उत्स रामायणीय देवगणकृत ब्रह्मा एवं विष्णु स्तुति (बालकाण्ड १।१६) है । भाषा और भाव की भी समानता है। देव लोग रावण से संत्रस्त होकर अपने
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