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.. श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन हैं। भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करती हैं। यह तथ्य ऋग्वेदीय सविता सूक्तों से प्रभावित है। अनेक स्थलों पर सविता को अन्धकार---अज्ञानांधकारविघातक, तमोविनाशक एवं उत्प्रेरकदेव कहा गया है।'
भागवत में अनेक स्थलों पर अपने उपास्य को यज्ञीय देवता कहा गया है। यज्ञस्वरूप, यज्ञरक्षक एवं यज्ञपति विशेषणों का प्रयोग किया गया है। ये विशेषण अग्नि सूक्तों से गृहित प्रतीत होते हैं। अग्नि को भी यज्ञ का पुरोहित, देवता, अधिष्ठाता, यज्ञस्वरूप, यज्ञरक्षक आदि कहा गया है।
भागवतीय स्तोताओं ने अपने स्तव्य के लिए कालातीत, सृष्टिकर्ता, भक्तरक्षक, असुरहन्ता, प्राणदाता, कामनादाता, क्लेशहन्ता आदि विशेषणों का संग्रह ऋग्वैदिक सूक्तों से किया होगा, ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि भागवत के प्रारंभ में ही भागवतकार ने बताया है कि-भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है। शुक के मुख सम्बन्ध से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण है। इसमें तनिक भी त्याज्य भाग नहीं है और यह पृथिवी पर ही सुलभ है इसलिए भागवतकार ने जीवनपर्यन्त इस दिव्य भगवद्रस का निरन्तर बार-बार पान करने के लिए सलाह दी है। इससे स्पष्ट है कि भागवतकार ने वैदिक वाङ्मय से विभिन्न तथ्यों का संकलन कर तथा भक्तिरस से परिपूर्ण कर इस ग्रन्थ का निर्माण किया। इसमें जो कुछ भी है वेद की व्याख्या है और विद्वत् समाज की यह उक्ति भी है
. इतिहासपुराणाम्यां वेदं समुपवृहयेत् । उपनिषद, आरण्यक में भागवतीय स्तुतियों का स्रोत
- औपनिषदिक विद्या-आत्मा, परमात्मा, जीव, अज्ञान, संसार सृष्टि, प्रलय, जगत्प्रपंच का आदि कारण, सबका मूल आश्रय आदि के विवेचन से सम्बन्धित है। विभिन्न उपनिषदों में जिस प्रकार से परमात्मस्वरूप का प्रतिपादन किया गया है वैसा वर्णन भागवतीय स्तुतियों में भी पाया जाता है। यह सम्पूर्ण संसार ईश्वर से ही शासित है। इस तथ्य का प्रतिपादन भागवतीय स्तोताओं ने बार-बार किया है।
सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम् । येऽप्यन्यदेवता भक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ॥
१. ऋग्वेद १.२.२ २. श्रीमद्भागवतमहापुराण ४.७.२७,४१,४५,४७,८.१७.८ ३. तत्रैव १.१.३ ४. वायुपुराण १.२०.१
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