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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
वहां स्पष्ट शब्दों में अन्य वार्ता को छोड़कर देव स्तुति करने का निर्देश दिया गया है - " माचिद् अन्यद् विशंसत ।" प्रभु के अतिरिक्त कोई सुख प्रदाता नहीं
७०.
नान्यं बलाकरं मडितारं शतक्रतो । त्वं न इन्द्र मृळय ॥ यो नः शश्वत् पुराविथामृध्रो वाजसातये । सत्वं न इन्द्र मृळय ॥
प्रभु की यश गाथा प्रत्येक जीव के द्वारा गाने योग्य है । अर्थात् प्रभु संस्तुत्य हैं, उनकी स्तुति करनी चाहिए
प्रतिज्ञा
ऋग्वेद स्पष्ट निर्देश करता है कि जैसे-जैसे ज्ञान विकसित होता जाए वैसे-वैसे प्रभु की स्तुति करनी चाहिए
कीर्तेन्यं मघवा नाम विभ्रत् । तवां दात्रं महि कीर्तेन्यं भूत् । तां सु ते कीर्ति मघवन् महित्वा ।
तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथाविद ऋतस्य गर्भ जनुषा पिपर्तन ।
आ जानन्तो नाम विवक्तन महस्ते विष्णो सुर्मात भजामहे ॥ "
एक स्थल पर स्तुति करने का आदेश है और एक स्थल पर उसकी
श्रेष्ठमु प्रियाणां स्तुहि । महो महीं सुष्टुति मीरयामि ।
अथर्ववेद में अनेक स्थलों पर स्तुति का प्रसंग उपस्थित है । एक स्थल पर ऋषि इन्द्र का आह्वान कर रहा है- " इन्द्रं वयमनुराधं हवामहे । नामकीर्तन का अन्यत्र उल्लेख प्राप्त होता है— सदा ते नाम स्वयशो विवक्मि | "
यस्य नाम महद यश:- - यजुर्वेद माध्यदिनशाखा ३२.३ यत् ते अनाधृष्ठं नाम यज्ञियम् — तत्रैव ५.९
१. ऋग्वेद ८.८०.१,२
२. तत्रैव १.१०३.४
३. तत्रैव १.११६.६
४. तत्रैव १०.५४.१
५. तत्रैव १.१५६.३
७.
६. तत्रैव ८.१०३.१० तत्रैव ३.२३.८ ८. अथर्ववेद १९.१५.२ ९. ऋग्वेद ७.२२.५
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