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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
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और उत्पादन करते हैं । आप ही सृष्टि के प्रारम्भ में स्त्री और पुरुष दोनों रूप धारण करने के कारण संसार के माता-पिता कहे जाते हैं
स्त्रीपुंसावात्मभाग ते भिन्नमूर्तेः सिसृक्षया ।
प्रसूतिभाजः सर्गस्य तावेव पितरो स्मृतौ ॥"
संसार को आपने उत्पन्न किया है पर आपको किसी ने उत्पन्न नहीं किया । आप संसार का अन्त करते हैं पर आपका कोई अन्त नहीं कर सकता । आप संसार के स्वामी हैं पर आपका कोई स्वामी नहीं हो सकता । आप अपने में ही स्थित रहते हैं
आत्मानमात्मना वेत्सि सृजस्यात्मानमात्मना । आत्मना कृतिना च त्वमात्मन्येव प्रलीयसे ॥
आप हवन द्रव्य भी हैं, हवनकर्त्ता भी हैं । आप भोग्य-भोक्ता, ज्ञेयज्ञाता, तथा ध्येय और ध्यानकर्ता भी हैं -
त्वमेव हव्यं होता च भोज्यं भोक्ता च शाश्वतः । वेद्यं च वेदिता चासि ध्याता ध्येयं च यत् परम् ॥'
किरातार्जुनीय की स्तुति सम्पदा
किरातार्जुनीय अलंकृत शैली का उत्कृष्ट महाकाव्य है । महाभारतीय आख्यान पर विरचित यह ग्रन्थ महाकवि भारवि की अमर रचना है । इस महाकाव्य के अन्त में अर्जुन ने भगवान् शंकर की स्तुति की है । अर्जुन की वीरता पर किरात वेशधारी भगवान् शंकर शीघ्र ही प्रकट हो जाते हैं । सामने त्रैलोक्य पति को देखकर अर्जुन की गद्गद्गिरा स्वतः निःसृत हो जाती है - हे अपराजित ! लोग आपकी भक्ति, दया, अनुकम्पा प्राप्त कर अरिदमन में समर्थ हो जाते हैं । नाथ ! जब तक प्राणी आपके चरणों की शरणागति नहीं ग्रहण करता तभी तक उसे असहाय समझकर विपत्तियां आती हैं | आप निस्वार्थ भाव से जगत् का मंगल करते हैं। संसार में सुदूर यात्रा करके लोग तीर्थ को प्राप्त करते हैं, वह तीर्थ भी आपही हैं क्योंकि समस्त कामनाओं की पूर्ति आपके द्वारा ही सम्भव है । हे वरदायक ! आपसे प्रेम रखने वाला मोक्ष प्राप्त करता है तथा आपसे द्वेष रखने वाला नरकगामी होता है । आपही भक्तों को स्वर्ग तथा अभक्तों को नरक देते हैं । आपका स्मरण ही कैवल्य प्रदायक है । ज्ञान और कर्म के द्वारा जिस मुक्ति की प्राप्ति का वर्णन किया जाता है वह ज्ञान और कर्म रूप तो आपही हैं । आपकी
१. कुमारसम्भव महाकाव्य, २/७
२. तत्रैव २।१०
३. तत्रैव २।१५
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