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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
५५ उसका ग्रास बनते है। पुरोहितों के विनाश से भीत प्रह्लाद प्रभु विष्णु की स्तुति करता है-हे सर्वव्यापी ! विश्वरूप ! विश्वस्रष्टा ! जनार्दन ! इन ब्राह्मणों की इस मंत्राग्निरूप दुःसह दुःख से रक्षा करो। भगवान् विष्णु सर्वव्यापक हैं इस सत्य के प्रभाव से पुरोहित गण जीवित हो जाएं।
__इस प्रकार इसमें मांगलिक चेतना निहित है। भक्त इतना उदार होता है कि अपने विरोधियों की रक्षा के लिए भी प्रभु से याचना करता
पंचम स्तुति है प्रह्लादकृत भगवत्स्तुति । वह अनन्त समुद्र में पहाड़ों से दबाया जा चुका है, फिर नित्यकर्म के समय वह भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करता है-हे कमल नयन ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषोत्तम, सर्वलोकात्मन् ! आपको नमस्कार है। गो ब्राह्मण हितकारी भगवान् कृष्ण, गोविन्द को नमस्कार है। इस स्तुति में भगवान् विष्णु के सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ तथा विश्व के कर्ता, पालक एवं संहारक आदि स्वरूप को उद्घाटित किया गया है। भक्त प्रकृति के कण-कण में भगवान् की सर्वव्यापकता का अनुभव करता है और अन्त में स्वयं भी विष्णुमय हो जाता है-मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूं तथा मैं जगत् के आदि अन्त में स्थित ब्रह्मसंज्ञक परम पुरुष हूं।
अन्य स्तुतियों हैं-देवगण कृत देवकी स्तुति (५.२.७-२१) वसुदेवदेवकी कृत श्रीकृष्ण स्तुति (५.३.१०-११ एवं, १२-१३) नागपत्नियों एवं कालिय नाग द्वारा कृत श्रीकृष्ण स्तुति (५.७.४८-५९ एवं ५.७.६१-७६) इन्द्रकृत श्रीकृष्ण स्तुति (५.१२.६-१२) तथा मुचुकुन्दकृत श्रीकृष्ण स्तुति (५.२३.२६-४७) आदि । महाकाव्यों को स्तुति सम्पदा
__ महर्षि वाल्मीकि एवं लोकसंग्रही व्यास के बाद महाकवि कालिदास अपनी काव्य-प्रतिभा तथा कल्पना चातुरी के लिए प्रख्यात हैं। विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य रघुवंश तथा प्रख्यात नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम् का प्रारम्भ शिव की स्तुति से ही होता है।
रघुवंश महाकाव्य के दसवें सर्ग में विष्णु भगवान् की स्तुति की गई है। रावण के भय से त्रस्त देवता लोग क्षीरशायी विष्णु के पास जाकर स्तुति करते हैं । उस समय भगवान विष्णु अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे, तभी देवगण १. विष्णुपुराण १।१८।३९ २. तत्रैव १।१८।४३ ३. तत्रैव ११९।६४-८६ ४. तत्रैव १।१९।६४-६५
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