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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
किसलिए उन्हें यज्ञ में निमन्त्रित करता ? लेकिन विनाश नजदीक हो जाता है, अपनी शक्ति काम नहीं आती तब जीव उस प्रभु के चरणशरणापन्न होता है।
प्रपद्ये देवमीशानं शाश्वतं ध्रुवमव्ययम् ।
महादेवं महात्मानं विश्वस्य जगतः पतिम् ।।'
इसमें भगवान के हजार नामों के द्वारा उनके विभिन्न रूपों पर प्रकाश डाला गया है । वे जगत् के कर्ता धर्ता एवं संहारकर्ता हैं।
सर्वव्यापक, नित्य, अव्यय, लोकातीत तथा सर्वसमर्थ हैं। भक्तों के रक्षक एवं सम्पूर्ण जीवों के एकमात्र शरण्य हैं । पापी कितना भी पाप क्यों न किया हो शिव का ध्यान करते ही पापमुक्त हो जाता है। जो परमेश्वर हैं, अज हैं, निद्रा रहित हैं, ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों रूपों में अवस्थित रहते हैं, यज्ञ कर्ता एवं यज्ञ रक्षक हैं। उसी सर्वगुणोपेत महादेव की शरणागति में अपनी रक्षा के लिए भक्त उपस्थित होता है। प्रजापति मन वाणी और समस्त इन्द्रियों से प्रभु महादेव से अपनी रक्षा की याचना करते
प्रसीद मम भद्र ते भव भावगतस्य मे । त्वयि में हृदयं देव त्वयिबुद्धिर्म नस्त्वयि ॥
इस प्रकार शिव सहस्रनाम स्तोत्र में शिव के सर्वव्यापक मंगल स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। विष्णुपुराण की स्तुतियां
विष्णुपुराण में १२ प्रमुख स्तुतियां हैं जो भगवान् विष्णु एवं तदावतार श्रीकृष्ण को विविध भक्तों द्वारा विभिन्न अवसरों पर समर्पित की गई हैं। प्रथम स्तुति ब्रह्माकृत भगवत्स्तुति है। यह आर्त स्तुति है । होता यह है कि ऋषि दुर्वासा से शापित होकर इन्द्र श्रीहीन हो गए हैं. जिससे दैत्यों का आतंक बढ़ गया है। समस्त लोक दैत्यों से त्रस्त है। अब कोई ऐसा दिखाई नहीं पड़ता जो इस विपत्ति से बचा सके । अतएव देवों सहित ब्रह्मा विष्णु की शरणागति ग्रहण करते हैं जो निखिललोक विश्राम, पृथिवी के आधार स्वरूप, अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त, अज, अव्यय, नारायण, विशुद्ध, बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यक्त, अविकारी, स्थूल सूक्ष्म आदि विशेषणों से रहित, अच्युत, भक्तरक्षक तथा जगत् के कारण हैं। १. महाभारत, शांतिपर्व २८४।५७ २. तत्र व, शान्तिपर्व २८ ४११८० ३. विष्णु पुराण १।९।४०-५७
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