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________________ संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा ५१ उनकी ग्रीवा नीली है, त्रिनेत्रधारी हैं, परमकारण हैं, सर्वव्यापी तथा सम्पूर्ण लोकों के आश्रय हैं। विष्णु स्वरूप हैं, दक्षयज्ञ विनाशक एवं शत्रुनाशक हैं । आप भूतगणों के स्वामी, सम्पूर्ण जगत् के कल्याणकर्त्ता शिव 1 भक्त जाने अनजाने में अपने द्वारा कृत अपराधों की क्षमा एवं प्रभु प्रसन्नता की याचना करता है । शरणं प्रतिपन्नाय तत् क्षमस्वाद्यशंकर || युधिष्ठिर कृत भगवती दुर्गा की स्तुति' दुर्गा - इस ढाई अच्छरीय पद में अद्भुत शक्ति है । संसार को अपने में कवलित कर लेने का प्रभूत सामर्थ्य है । इस नाम के उच्चारण मात्र से ही सारे पाप, ताप, ग्रह, रोग, दुःख अपने आप समाप्त हो जाते है । सद्यः उस ममतामयी माता के पवित्र गोद में उसका पापी पुत्र भी स्थान पा जाता है— उसके वात्सल्य को प्राप्त कर जगत् में महिमान्वित हो जाता है । राजा विराट् के रम्योद्यान में प्रतिष्ठित भगवती दुर्गा के चैत्य में आकर भक्तराज युधिष्ठिर महिमामण्डित माता की स्तुति करते हैं । कौरवों की विशाल शक्ति को पार पाना अत्यन्त दुस्तर है लेकिन जहां मां की शक्ति है वहीं जय है । विजय की लालसा से युधिष्ठिर माता की स्तुति करते हैं । २६ अनुष्टुप् छन्दों से युक्त इस स्तुति में माता के विभिन्न पूर्व चरित एवं विभूतियों का वर्णन किया गया है । जब कोई भक्त अपने उपास्य की स्तुति में प्रवृत्त होता है तो पहले सांसारिक सम्बन्ध के आधार पर उनकी स्तुति करता है । द्रौपदी स्तुति करती है तो अपने सांसारिक सम्बन्धों को ध्यान में रखकर - द्वारिकावासिन् गोपीजनप्रिय आदि । युधिष्ठिर की स्तुति भी प्रथमतः लौकिक सम्बन्ध पर ही स्फूर्त होती है यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् । नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवधणीम् ॥ दुस्सह दुःख से जो उद्धार करे वह दुर्गा है— दुर्गान् तारयसे दुर्गे तत् त्वं दुर्गा स्मृता जनैः । १. महाभारत वनपर्व ३९/८२ २. तत्रैव - विराट् पर्व ६ ३. तत्रैव ६।२ ४. तत्रैव ६।२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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