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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
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उनकी ग्रीवा नीली है, त्रिनेत्रधारी हैं, परमकारण हैं, सर्वव्यापी तथा सम्पूर्ण लोकों के आश्रय हैं। विष्णु स्वरूप हैं, दक्षयज्ञ विनाशक एवं शत्रुनाशक हैं । आप भूतगणों के स्वामी, सम्पूर्ण जगत् के कल्याणकर्त्ता शिव
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भक्त जाने अनजाने में अपने द्वारा कृत अपराधों की क्षमा एवं प्रभु प्रसन्नता की याचना करता है ।
शरणं प्रतिपन्नाय तत् क्षमस्वाद्यशंकर ||
युधिष्ठिर कृत भगवती दुर्गा की स्तुति'
दुर्गा - इस ढाई अच्छरीय पद में अद्भुत शक्ति है । संसार को अपने में कवलित कर लेने का प्रभूत सामर्थ्य है । इस नाम के उच्चारण मात्र से ही सारे पाप, ताप, ग्रह, रोग, दुःख अपने आप समाप्त हो जाते है । सद्यः उस ममतामयी माता के पवित्र गोद में उसका पापी पुत्र भी स्थान पा जाता है— उसके वात्सल्य को प्राप्त कर जगत् में महिमान्वित हो जाता है ।
राजा विराट् के रम्योद्यान में प्रतिष्ठित भगवती दुर्गा के चैत्य में आकर भक्तराज युधिष्ठिर महिमामण्डित माता की स्तुति करते हैं । कौरवों की विशाल शक्ति को पार पाना अत्यन्त दुस्तर है लेकिन जहां मां की शक्ति है वहीं जय है । विजय की लालसा से युधिष्ठिर माता की स्तुति करते हैं । २६ अनुष्टुप् छन्दों से युक्त इस स्तुति में माता के विभिन्न पूर्व चरित एवं विभूतियों का वर्णन किया गया है ।
जब कोई भक्त अपने उपास्य की स्तुति में प्रवृत्त होता है तो पहले सांसारिक सम्बन्ध के आधार पर उनकी स्तुति करता है । द्रौपदी स्तुति करती है तो अपने सांसारिक सम्बन्धों को ध्यान में रखकर - द्वारिकावासिन् गोपीजनप्रिय आदि । युधिष्ठिर की स्तुति भी प्रथमतः लौकिक सम्बन्ध पर ही स्फूर्त होती है
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् । नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवधणीम् ॥
दुस्सह दुःख से जो उद्धार करे वह दुर्गा है— दुर्गान् तारयसे दुर्गे तत् त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
१. महाभारत वनपर्व ३९/८२
२. तत्रैव - विराट् पर्व ६
३. तत्रैव ६।२
४. तत्रैव ६।२०
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