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________________ ५० महत्यापदि सम्प्राप्ते स्मर्तव्यो भगवान् हरिः ॥ ' वस इतनी ही की तो आवश्यकता थी । वह हृदयस्थ शोक को समेटकर शब्द के माध्यम से उस त्रैलोक्य नाथ को पुकारने लगी- अब कौन रक्षक है । मन, वाणी और काय से उसी त्रिलोकी के चरण ध्यान में स्थित हो जाती है । पुकार उठती है अपने नाथ को— श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन गोविन्द द्वारिकावासिन् कृष्णगोपीजनप्रिय | कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव ॥ ' हे नाथ कौरव रूपी समुद्र में डुबी जा रही इस अबला का अब कौन उद्धार करेगा । हे कृष्ण ! महायोगिन् ! विश्वात्मन् । गोविन्द ! कौरवों के बीच कष्ट पाती हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजिए । अब देखिए श्रीकृष्ण की स्थिति - खुले पैर दौड़े आ रहे हैं, घोर विपत्ति में निमग्न याज्ञसेनी कृष्णा की रक्षा के लिए। प्रभु वस्त्र स्वरूप ही हो गए। नीच दुःशासन की कपटी भुजाएं थक गयी । हाहाकार मच गया । भगवान् कृष्ण की जय-जयकार होने लगी- साधु-साधु की पुकार होने लगी । भगवान् शंकर की स्तुति' तपश्चर्या की सफलता पर भक्त सामने समुपस्थित भगवान् की गद्गद् गिरा में स्तुति करता है। यहां स्थिति यह है कि अर्जुन अपने उपास्य से ही भीषण संग्राम कर रहा है, उसे क्या पता कि उसके भगवान् ही उसकी परीक्षा ले रहे हैं । जब किरात वेशधारी शिव प्रकट हो जाते हैं तो अर्जुन आह्लादित हो उठता है । अपने प्रभु की दयालुता और वत्सलता पर हृदय विगलित होकर, मनःस्थित भाव अभिव्यक्त होने लगते हैं- शब्द के माध्यम से । उपास्य से सम्बन्धित विभिन्न विशेषण प्रकट होने लगते हैं कर्पादिन् सर्वदेवेश भगनेत्रनिपातन देवदेव महादेव नीलग्रीव जटाधरः । शिव के विभिन्न नाम इस स्तुति में प्रयुक्त हुए हैं । इन्हीं विशेषणों या नामों के आधार पर अर्जुनोपास्य के स्वरूप पर भी प्रकाश पड़ता है— भगवान् शंकर देवाधिदेव महादेव हैं, जटाधारण करने वाले हैं, १. महाभारत, सभापर्व ६८।४१ २. तत्रैव ६८।४१ ३. तत्रैव ६८।४३ ४. तत्रैव वनपर्व ३९ ५. तत्रैव ३९।७४ } Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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