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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
तथा सर्वज्ञ हैं । ब्राह्मण, वेद और यज्ञ की रक्षा के लिए ही वे श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए हैं।'
वे विश्व के विधाता एवं जगत् के स्वामी हैं। वे ही विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं । वे ही अधोक्षज, सूर्यरूप, सोमरूप, ज्ञेयरूप, वेदरूप यज्ञरूप, होमरूप, स्तोत्ररूप, हंसरूप, वाणीरूप, निद्रास्वरूप, तत्त्वस्वरूप, भूतस्वरूप, सूक्षात्मा, मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, बलराम, श्रीकृष्ण एवं कल्कि स्वरूप भी हैं । भक्तवत्सल, भक्तवांछाकल्पतरू एवं सत्त्वरज-तमोमय है।
- भगवान् श्रीकृष्ण सर्वलोकमहेश्वर, हिरण्यनाभ, यज्ञाङ्गरूप, अमृतमय कमलनयन एवं परमशरण्य हैं। वे मंगलमय हैं। वे सत्यस्वरूप, धर्मस्वरूप, कामस्वरूप, क्षेत्रस्वरूप, योगरूप एवं धोररूपधारी हैं।
... जो ज्ञान, प्रमाण आदि की सीमा से रहित हैं, संपूर्ण लोकों में व्याप्त पुरातन पुरुष हैं। उनके प्रति समर्पित पूजा, श्रद्धा, भक्ति एवं स्तुति से मनुष्य भवबन्धन विमुक्त हो जाता है । जो ब्राह्मणों के हितकारी हैं, वे ही मेरी गति
इस प्रकार भक्तिभावित चित्त से भीष्म इस स्तवराज का गायन करते हैं। ८४ श्लोकों में ८२ श्लोक अनुष्टुप् छन्द में तथा शेष दो 'जतजास्ततोगो' लक्षण लक्षित उपेन्द्रवज्रा छन्द में हैं । द्रौपदीकृत श्रीकृष्ण स्तुति
. द्रौपदी की स्तुति में मात्र तीन ही श्लोक हैं लेकिन वह समस्त हृदयस्थ मनोव्यथा को, कोरव जन्य अपमान को तथा अपनी असहाय स्थिति को निरूपित कर देती है । यह आर्त स्तुति है ।
स्थिति देखिए-लोक में पांचों पांडव बड़े वीर धनुर्धर हैं, पितामह भीष्म सदसद्विवेकी हैं, विदूर नीतिशास्त्र में पारङ्गत हैं, आचार्य द्रोण और कृपाचार्य अपने विचार के पक्के हैं लेकिन भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र कुटिल दुःशासन के द्वारा खींचा जा रहा है । वह आर्त नेत्रों से अपनी रक्षा की याचना करती है। लगता है उसकी करुण-विलाप के शब्द वीरों के कानों तक नहीं जा पाते थे और उसकी स्थिति पर हो सकता है कि उन तथाकथित महात्माओं की दृष्टि गयी ही न हो। सब ओर से असहाय हो जाती है तभी पूर्व संस्कार वशात् वशिष्ठ का उपदेश काम आ जाता
१. महाभारत शान्तिपर्व ४७।२९ २. तत्रैव सभापर्व, ६८.४१-४३
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