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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन द्वारा उनकी अभ्यर्थना करता है । भगवान् की विभूतियों का दर्शन कर गद्गद् गिरा में अर्जुन श्रीकृष्ण की स्तुति करता है।
कुछ स्तुतियों का यहां संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा हैभीष्मकृत श्रीकृष्ण स्तुति
पितामह भीष्म निष्काम भाव से दो बार भगवान् की स्तुति करते है । प्रथम वार उत्तरायण सूर्य के आगमन पर द्वितीय भगवान् द्वारा धर्म के बारे में पूछे जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण की नुति करते हैं। प्रथम बृहदाकार स्तोत्र भक्त समाज में भीष्मस्तवराज के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों का प्रतिपादन किया गया है। अनेक साभिप्राय विशेषणों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के सर्वव्यापकत्व सर्वसमर्थत्व आदि का प्रतिपादन किया गया है।
सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में स्थित होकर पितामह स्तुति करते हैं। यह निष्काम स्तुति है। भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा की प्राप्ति ही भक्त का लक्ष्य है, इसलिए सर्वात्मभाव से पितामह भीष्म उन्हीं के शरण में उपस्थित होते है
शुचि शुचिपदं हंसं तत्पदं परमेष्ठिनम् ।। युक्त्वा सर्वात्मनात्मानं तं प्रपद्ये प्रजापतिम् ॥
यहां योगेश्वर, पद्मनाभ, विष्णु, जगत्पत्ति आदि श्रीकृष्ण के अनेक रूपों का प्रतिपादन किया गया है । सर्वव्यापक श्रीकृष्ण
भीष्म के भगवान् श्रीकृष्ण सामान्य नहीं बल्कि सर्वलोकव्यापक और अगतिकगति हैं। उनका न आदि है न अन्त । वे ऋषि मुनि, देव मनुष्यादि की ज्ञान सीमा से परे हैं। वे सबका धारण पोषण करते हैं । नारायण नाम भी उनका प्रसिद्ध है । उन्हीं में सम्पूर्ण प्राणी स्थित हैं। वे ही समस्त जीवों के अधिष्ठान स्वरूप हैं। प्रकृति के कण-कण में व्याप्त हैं। स्वरूप
इस स्तवराज में भगवान् के विराट् स्वरूप के साथ-साथ उनके विभिन्न विभूतियों का प्रतिपादन किया गया है। उनके सहस्रसिर, सहस्रचरण , सहस्रनेत्र, सहस्रों भुजाएं एवं सहस्रों मुख हैं। वे ही विश्व के परम आधार है । वे सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा बृहद् से भी बृहद् हैं । वे सबके आत्मा, १. महाभारत --शांतिपर्व ४७.१८ २. तत्रैव ४७.२३-२४
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